सहस्त्रबाहु- पुरशराम कथा

 (हैहयवंश पुस्तक का पाचंवा अंश)

  महाराज कार्तवीर्य अर्जुन को श्री भगवान् दत्तात्रेय का दर्शन 
                  
श्री  मार्कंडेय पुराण अध्याय-18 के अनुसार:
यदि देव प्रसंन्त्वं तत्प्रयाच्छाधि मुक्त माम।
यथा प्रजा पाल्यायेम न चा धर्मं मवाप्नुयाम।।
परानुस्मरण ज्ञान म प्रति द्वन्दतांरणे।
सहस्त्रमाप्तु भिच्छामि बाहुना लघुता गुणाम ।।
असँगा गतय: सन्तु शौला काशम्बु मूमिसु।
पातालेषु    च सर्वेषु वधश्चाप्याधि कान्नरात।।
तथा माग प्रवृ तस्य सन्तु सन्मार्ग देशिवा :
संतुमें तिथय -शलाघ्य  वित्तवान्य तथा क्षयं ।।
अन्स्ट द्रव्यता रास्ट्रे  मामनुस्मरणेन 
त्वयि भक्तिश्च देवाश्तु नित्यं मव्यभि चारणी ।।

हरिवंश पुराण के अध्याय ३३ में वैशम्पायन जी द्वारा महाराज जन्मेजय जी को वंश परिचय सुनाते हुए कहते है "हे राजन यदु के देव पुत्रो की तरन पञ्च पुत्र सस्त्रद, पयोद, नील और आन्जिक नाम के हुये। सहस्त्रद के परम धार्मिक तीन पुत्र () हैहय () हय ()वेनुहय नाम के हुए। हैहय के पुत्र धर्म नेत्र हुए उनके कार्त और कार्त के साहन्ज आत्मज है। जिन्होंने अपने नाम से साहन्जनी नामक नगरी बनाई, साहंज के पुत्र राजा महिस्मान हुए जिन्होंने महिस्मती नाम की पूरी बसाई, महिस्मान के पुत्र प्रतापी भद्रश्रेन्य है जो वाराणसी के अधिपति थे, भद्रश्रेन्य के विख्यात पुत्र दुर्दम थे। दुर्दम के पुत्र महाबली कनक हुए और कनक के लोक विख्यात ४ पुत्र () कृतौज () कृतवीर्य () कृतवर्मा () क्रिताग्नी थे। कृतवीर्य के अर्जुन हुए, जो बाद में सहस्त्रार्जुन अर्थात सहस्त्रबाहु नाम से विख्यात हुए। सहस्त्रबाहु सूर्य के सामान चमकते हुए रथ पर चढ़ कर सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत कर सप्त द्वीपेश्वर बन गया। उसने अत्रिपुत्र दत्तात्रेय की आराधना करते हुए दस हजार साल तक कठिन तपस्या की।  तपस्या से प्रसन्न होकर गुरु श्रेष्ठ दत्तात्रेय ने वरदान प्रदान किये थे जिसमे पहला हजार भुजा होने का था, जो की अर्जुन के द्वारा माँगा गया था, दूसरा सज्जनों को अधर्म से निवारण करना, तीसरा शीघ्रता से पृथ्वी जो जीत लेना और राजा धर्म से प्रजा को प्रसन्न रखना, चौथा वर बहुत संग्रामो को कर अपने हजारो शत्रुओ का बध कर संग्राम भूमि में रण करते हुए अपने से अधिक बलवान, श्रेष्ठ महापुरुष द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना। आदि वैशम्पायन जी बोले, " हे राजन, उस योगेश्वर की योग माया से युद्ध काल में हजार भुजाये उत्पन्न हो जाती थी। इससे उसने सात द्वीपों वाली पृथ्वी को नगर - ग्राम, समुद्र, वन पर्वत सही शीघ्र ही जीत लिया।


हे जन्मेजय, मैंने ऐसा सुना है, की उस सहस्त्रबाहु ने सातो द्वीपों में सैकड़ो यज्ञ शास्त्र विधि से किये थे। और उसके सभी यज्ञ अधिक दक्षिणा वाले थे और सब यज्ञो में सुवर्ण के खम्भे तथा सुवर्ण की वेदिकाएं बनायीं गई थी। हे महाराज, और सभी यज्ञ देवताओं के विमानों से तथा गन्धर्वो एवं अप्सराओ से सुशोभित थे। जिसके यज्ञ की महिमा से विस्मित होकर वरिदास के
विद्वान पुत्र गन्धर्व ने तथा नारद जी ने गाथा गान किया था। नारद जी ने कहा, की निश्चय है की जैसा यज्ञ, दान, तप, पराक्रम तथा ज्ञान कार्तवीर्य ने किया है  वैसा कोई दूसरा राजा नहीं कर सकता।  वह योगी खड्ग, कवच तथा धनुष बाण धारण कर रथ पर बैठा हुआ सातों द्वीपों में मनुष्यों के द्वारा देखा जाता था। धर्म से प्रजा की रक्षा करने वाले उस राजा का धर्म के प्रभाव से कभी दृव्य नस्ट नहीं होता था न कभी शोक, मोह तथा विभ्रम होता था। वह पचासी हजार वर्ष तक सब रत्नों से युक्त होकर चक्रवर्ती सम्राट था। योग के बल से वह स्वयं यज्ञपाल एवं क्षेत्रपाल था। वह स्वयं मेघ बनकर प्रजा की रक्षा करता था। धनुष की डोरी खीचने से कठिन हो गया उसके हाथ का चमड़ा हो गया था

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वह सहस्त्रबाहु हजारो किरणों वाले शरद कालीन सूर्य की भांति चमकता था। उस महातेजस्वी ने ककोर्टक नाग के पुत्रो को जीत लिया कर अपनी महिस्मती पूरी में नागो को मनुष्यों के साथ बसा दिया था। उस कमलनेत्र ने वर्षा काल में समुद्र के वेग को क्रीडा करते हुए अपने भुजाओं से व्यथित कर उलटा कर दिया था जिससे जलक्रीडा द्वारा आलोड़ित होने से उत्पन्न हो गई फेनो की माल जिसमे ऐसी फेनमाला के डोरों युक्त नर्मदा अपनी चंचल जहाजों तरंजो के द्वारा शंकित चित्त होती हुई समुद्र से मिलती थी। उसके सहस्त्रो बाहो द्वारा समुद्र के क्षुब्ध होने पर पाताल में स्थित महासुर भय के मारे चेतना रहित हो जाते थे, जैसे देवता और असुरो ने मंदराचल को क्षीर सागर में मंथन किया था वैसे ही यह महाबलवान सहस्त्राबाहू अपने शरीर को समुद्र में डाल कर जब अपने हजारो भुजाओं द्वारा मथने लगता था तब समुद्र की बड़ी बड़ी लहरे इधर-उधर भागने लगती थी तथा बाहुबेग के उत्पन्न वायु के फेनो का समूह उत्पन्न होकर भंवरे पड़ने लगती थी, इससे समुद्र को दुह्सः क्लेश होता था। मंदराचल रूपी सहस्त्राबाहू के द्वारा उत्पन्न क्षोभ से चकित हो अमृत उत्पन्न होने की आशंका से हजारो सर्प ऊपर निकल आये, पर भयंकर सहस्त्रबाहु को देख भय से नीचे फण कर उसकी वायु से कम्पित/कांपते हुए सायंकाल कदली बन में चले गए। उस महान वीर ने बलवान लंकापति रावन को ५ बाणों से मूर्छित कर तथा बलपूर्वक जीतकर धनुष की डोर में बाँध कर अपनी महिस्मती नगरी में लाया था। जब यह समाचार पुलस्त्य मुनि ने सुना की सहस्त्रबाहु ने रावण को बंधन में डाल दिया है, तो वे महिस्मती में जाकर सहस्त्रबाहु का साक्षात्कार कर रावण को छोड़ने की याचना की तब उसने रावण को छोड़ा था। जिस सहस्त्रबाहु के धनुष की प्रत्यंचा का शब्द ऐसा भयानक होता था की जैसे युगांतकारी मेघ को फोड़कर विद्युत् का शब्द होता  है। अहोधान्य है उस परशुराम के बल को, की जिनने युद्ध भूमि में उसकी सुवर्ण सी चमकती हजारो भुजाओ को ताल वन की भांति काट गिराया। एक बार अग्नि देव ने भूख से पीड़ित होकर सहस्त्रबाहु से भोजन की भिक्षा मांगी थी, तब सहस्त्राबाहू अग्नि को सातों द्वीप दे दिया था। तब तो वह अग्नि पुर, ग्राम, घोष तथा देशो को चारो तरफ से अपनी ज्वाला से जलाने लगा, इस प्रकार उसका सब कुछ जला दिया। अग्नि उस पुरुषेन्द्र महात्मा अर्जुन के प्रभाव से वन और पर्वतों को जलाते जलाते वरुण पुत्र वशिष्ठ के सूने आश्रम को भी डरते डरते हैहय (सहस्त्रबाहु) के साथ वन की भांति भस्म कर दिया।

वरुण ने पहले जिस उत्तम तेज वाले पुत्र का लाभ किया था वही वशिष्ठ नाम से विख्यात मुनि हुए, उनको आपव भी कहते है। फिर वशिष्ठ मुनि ने आश्रम को भस्म हुआ देख अर्जुन को श्राप दिया की हे हैहय, जिन भुजाओं के बल से तूने हमारे वन को जलाने से नहीं रोका और दुष्कर्म कर डाला, उन भुजाओं को काटकर वेग से तुम्हारा मान-मर्दन कर जमदग्नि  के पुत्र तपस्वी ब्राह्मण प्रतापी एवं बली भृगुवंशी परशुराम बध करेगे। 

वैशाम्पायन जी बोले, "हे अरिसूदन, धर्म से प्रजा की रक्षा करने वाले राजा के राज्य में कभी भी द्रव्य नस्त नहीं होता था, उस राजा की मृत्यु मुनि के श्राप से परशुराम द्वारा हो गयी। हे कौरव्य, सहस्त्रबाहु ने भी


दत्तात्रेय जी से स्वयं इसी प्रकार का मृत्यु वरदान माँगा था अतः उसी के अनुरूप उस महाबली श्रेष्ठ महात्मा राजा की मृत्यु परशुराम द्वारा संपन्न हुयी। उस महात्मा के सौ पुत्रो में ५ पुत्र शेष रह गए जो की यशस्वी, शूरवीर, धर्मात्मा एवं बली थे। शूरसेन, शूर, ध्रिसतक, कृष्ण तथा जयध्वज जो अवन्ती नगरी का महान राजा था। कार्तवीर्यार्जुन के सभी पुत्र बली और महारथी थे। वे जयध्वज के पुत्र महाबली ताल्जंगा हुए। हे महाराज, महात्मा हैहय के वंश में वीतिहोत्र, सुजात, भोज, अवन्ती तथा तौन्दिकेर आदि प्रकुख तालजंघा हुए थे। हे राजन, शूर आदि तथा शूरवीर सूरसेन इत्यादि हैहय कहे जाते है। शूरसेन के नाम पर ही उनका शूरसेन देश विख्यात है। जो मनुष्य कार्तवीर्यार्जुन (सहस्त्रार्जुन) के जन्म आदि का पाठ नित्यश: कहते और सुनते है उनका धन कभी भी नष्ट नहीं होता है, तथा नष्ट किया हुआ धन पुनः प्राप्त हो जाता है। हे राजन, ये सैम मैंने ययाति के पुत्रो के विविध वीर वंशजो का वर्णन किया की जिन्होंने इन लोको को पंचमहाभूतों की भांति स्थावर तथा जंगम सहित धारण किया था, अर्थात रक्षा किया था। 

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा | महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी | कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी | महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया | २९कामधेनु गाय के अदभुत गुणों से प्रभावित होकर सहस्त्रार्जुन के मन में भीतर ही भीतर लालच समां चूका था | कामधेनु गाय को पाने की उसकी लालसा जाग चुकी थी | महर्षि जमदग्नि के समक्ष उसने कामधेनु गाय को पाने की अपनी लालसा जाहिर की | सहस्त्रार्जुन को महर्षि ने कामधेनु के विषय में सिर्फ यह कह कर टाल दिया की वह आश्रम के प्रबंधन और ऋषि कुल के जीवन के भरण - पोषण का एकमात्र साधन है | जमदग्नि ऋषि की बात सुनकर सहस्त्रार्जुन क्रोधित हो उठा, उसे लगा यह राजा का अपमान है तथा प्रजा उसका अपमान कैसे कर सकती है | उसने क्रोध के आवेश में आकार महर्षि जमदग्नि के आश्रम को तहस नहस कर दिया, पूरी तरह से उजाड़ कर रख दिया ऋषि आश्रम को और कामधेनु को जबर्दस्ती अपने साथ ले जाने लगा | वह क्रोधावाश दिव्य गुणों से संपन्न कामधेनु की अलौकिक शक्ति को भूल चूका था, जिसका परिणाम उसे तुरंत ही मिल गया, कामधेनु दुष्ट सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई और उसको अपने महल खाली हाँथ लौटना पड़ा |

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने विस्तारपूर्वक सारी बातें बताई | परशुराम क्रोध के आवेश में आग बबूला होकर दुराचारी सहस्त्राअर्जुन और उसकी पूरी सेना को नाश करने का संकल्प लेकर महिष्मती नगर पहुंचे | वहाँ सहस्त्रार्जुन और परशुराम के बीच घोर युद्ध हुआ | भृगुकुल शिरोमणि परशुराम ने अपने दिव्य परशु से दुष्ट अत्याचारी सहस्त्राबाहू अर्जुन की हजारों भुजाओं को काटते हुए उसका धड़ सर से अलग करके उसका वध कर डाला | जब महर्षि जमदग्नि को योगशक्ति से सहस्त्रार्जुन वध की बात का ज्ञात हुआ तो  उन्होंने अपने पुत्र परशुराम को प्रायश्चित करने का आदेश दिया | कहते हैं पितृभक्त परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि ऋषि के आदेश का धर्मपूर्वक पालन किया भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर तपस्या किया करते थे | एक बार जब भगवान परशुराम


अपने तपस्या में महेंद्र पर्वत पर लीन थे तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो पिता का कटा हुआ सिर और माता को विलाप करते देखा | माता रेणुका ने महर्षि के वियोग में विलाप करते हुए अपने छाती पर २१ बार प्रहार किया और सतीत्व को प्राप्त हो गईं | माता - पिता के अंतिम संस्कार के पश्चात्, अपने पिता के वध और माता की मृत्यु से क्रुद्ध परशुराम ने शपथ ली कि वह हैहयवंश का सर्वनाश करते हुए समस्त क्षत्रिय वंशों का संहार कर पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर देंगे | पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया | कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया|

टिप्पणियाँ

  1. इतिहास साक्षी है इसी प्रकार का एक राजा वानरराज बाली भी था, अत्यंत पराक्रमी एवम् धार्मिक भी था। प्रारब्ध ऐसा था कि अंतकाल निकट आते आते बुद्धिहीन हो गया और कमजोर सुग्रीव के साथ दुर्दांत व्यवहार किया।उसे देशनिकाला दे दिया और उसकी पत्नी को वश में कर लिया। शक्ति की मदांधता की इसी मूर्खता के कारण उसका भी वध हुआ।

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  2. सहस्त्रबाहु जैसे अत्यंत धार्मिक,दानी एवम् पराक्रमी राजा एक ब्राह्मण की संपत्ति के लालच में किस प्रकार दुराचारी हो गया।अकल्पनीय हैं। लेकिन ये प्रारब्ध था कि ऋषि दत्तात्रेय से उसने यही वर मांगा था कि उसकी मृत्यु परशुराम के द्वारा ही होनी थी। परन्तु उसके पुत्रो ने उससे भी ज्यादा घोर पाप किया था। तत्पश्चात पुत्रो के पापकर्म का तो यही हर्ष होना था।

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  3. क्या यह भी सत्य है

    सह्त्रबाहू की बराबरी यज्ञ, दान, नल, विनय और विद्या में आजतक कोई राजा नही कर साका ..
    एक दिन देवो पर विजय प्राप्त करने के बाद विश्व विजेता रावण ने अर्जुन पर आक्रमण कर दिया परन्तु सह्त्रबाहू ने रावण को बंधी बना लिया और रावण द्वारा क्षमा मांगने पर महीनो बाद छोड़ा.
    फिर भगवान नारायण विष्णु के छटवे अंश ने परशुराम जी का अवतार धारण किया और सहस्रबाहु का घमंड चूर किया इस युद्ध में स्थल 105 पुत्रो को उनकी माता लेकर कुलगुरु की शरण में गई राजा श्री जनक राय जी ने रक्षा का वचन दिया और 105 भाइयो को क्षत्रिय से खत्री कहकर अपने पास रख लिया और ब्राह्मणवर्ण अपना कर सत्य सनातन धर्मं पर चलने का वादा किया105 भाइयों के नाम से उनका वंश चला और खाती समाज के 105 गोत्र हुए.चन्द्रवंश की १ ० ५ शाखाये पुरे भारत में राजवंशी खत्री भी कहलाते हे

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    1. Ha यह बात सही है ओर हम सभी खाती पटेल लोग उन्ही 105 बच्चो के वंशज हे कश्मीरी ब्राह्मण ही अपन लोग अपना बेल्ट मानपुर पीथमपुर से लेकर शाजापुर शरंगनपुर तक हे इसके पीछे अपनी बहुत लंबी कहानी ही पूरे भारत में सिर 6ए7 जिले में ही अपन लोग हे
      मो.9098912131 कपिल चौधरी

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  4. Sahastrabahu ek dharmatma raja the aur dharm ka palan karte hue yuddh Kiya ismein koi nirnay Nahin hai

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