माहिष्मति (राजराजेश्वर मंदिर,महेश्वर) का महत्त्व


(हैहयवंश पुस्तक का चौथा अंश )

मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में इंदौर से लगभग ७० किलोमीटर दखिन में नर्मदा नदी के उतरीं तट पर महेश्वर जिसे माहिष्मति के नाम से भी जाना जाता है स्थित है| इस मंदिर के ठीक  विपरीत नर्मदा के तट के दूसरे छोर पर नावदा टीला स्थान है जोकि ताम्रयुगीन संस्कृत का सूचक और अवशेष के रूप में माना जाता है| हमें महाभारत में महेश्वरपुर और माहिष्मति नगर या स्थान  का उलेख्या भी देखने को मिलता है जो संभवत: महेश्वर या माहिष्मति का ही बोधक है| एक अन्य पुराण पद्म के अनुसार माहिष्मति में ही त्रिपुरासुर का वध हुआ था| लगभग सभी पुरानो और ग्रंथो में यदुवंश के समकालीन ययाति शाखा हैहयवंश का माहिष्मति पर राज्य और अधिकार करने का वरन है, और माहिष्मति ही हैहय वंश के राजाओं की राजधानी भी रही| पुरानो में यह भी वर्णित है की त्रिपुर या त्रिपुरी का विध्वंश शिवजी ने महेश्वर में किया था, पुरानो में प्रिपुरी के मुख्या शाशक तथा तर्कापुर के नाम भी मिलते है|
मार्कण्डेय पुराण में कार्तवीर्य को एक हज़ार वर्ष और हरिवंश पुराण में बारह हज़ार वर्ष दत्तात्रेय जी की उपासना करना बतलाया है I श्री राजराजेश्वर भगवान कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन बहुत लोक प्रिय सम्राट थे विश्व भर के राजा महाराजा मांडलिक, मंडलेश्वर आदि सभी अनुचर की भाँति सम्राट सहस्त्रार्जुन के दरबार में उपस्थित रहते थे I उनकी अपर लोकप्रियता के कारण प्रजा उनको देवतुल्य मानती थी I आज भी उनकी समाधी स्थल "राजराजेश्वर मंदिर" में उनकी देवतुल्य पूजा होती है I उन्ही के जन्म कथा के महात्म्य के सम्बन्ध में मतस्य पुराण के 43 वें अध्याय के श्रलोक 52 की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : -
यस्तस्य कीर्तेनाम कल्यमुत्थाय मानवः I
तस्य वित्तनाराः स्यन्नाष्ट लभते पुनः I
कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदित धीमतः II
यथावत स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महितये II
उक्त श्लोक का अर्थ है कि जो प्राणी सुबह-सुबह उठकर श्री कार्तवीर्य सह्स्त्राबहुअर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का  कभी नाश नहीं होता है  और यदि कभी  नष्ट हो भी जाय तो पुनः प्राप्त हो जाता है I इसी प्रकार जो  लोग श्री कार्तवीर्य सह्स्त्राबहुअर्जुन के जन्म वृतांत की कथा की महिमा का वर्णन कहते और सुनाते है उनकी जीवन और आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाति है वह स्वर्गलोक में प्रशंसित होता है I


राजराजेश्वर मंदिर में युगों-युगों से देसी घी के ग्यारह नंदा दीपक अखण्ड रूप से प्रज्वलित हैं, इतिहासकारों की दृष्टि में 11 दीपक अखण्ड ज्योति में और कहीं नहीं हैं I मंदिर के गर्भ गृह में दक्षिण पश्चिम कोने पर सात दीपक हैं और उत्तर-पूर्वी कोने पर चार हैं जिनका पश्चिम उत्तरी कोने पर लगे पाँच फुट लम्बे आयने (दर्पण) में स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई देता है I भारत के अन्य किसी मंदिर में बिरले २१ही इतनी अधिक संख्या में शताब्दियों से अखण्ड दीपक प्रज्वलित हों I मंदिर को बड़ा सिद्ध स्थल माना जाता है, यहाँ पर हर समाज जाति धर्म के भक्तों की मनोकामना आज भी उसी तरह पूरी होती है  जिस प्रकार उनके जीवन काल त्रेतायुग में होती थी I उनके महेश्वर स्थित समाधी स्थल पर बने
मंदिर का नाम "राजराजेश्वर मंदिर" है I यह मंदिर महेश्वर में नर्मदा तट पर किले के अन्दर है I मंदिर के गृहस्थ महंत किरान गिरी उनकी सात पीढ़ी से हैं I मुख्य मंदिर की स्थापत्य कला से उसके कलचुरी एवं परमार काल 11 वीं शताब्दी में जीर्णोद्धार के होने का आभास होता है I मंदिर मे नित्य पूजा पाठ महंत के मातहत ब्राह्मन कर्मचारी द्वारा की जाति है I

यह मीनार लगभग  150x100 फीट के प्रांगण के बीच पूर्वामुखी है I मंदिर के बीच में शिवलिंग के रूप में राजराजेश्वर सहस्त्रार्जुन की समाधी है I शिवलिंग के पीछे अष्टधातु की शिव-पार्वती की चालित मूर्ती है, इस मूर्ती का कपाल भाग दक्षिणात्य शैली के अनुसार पीछे की ओर थोडा दबा हुआ है I यह विशेषता इस प्रतिमा में है I इस मूर्ती के ऊपर श्री सहस्त्रार्जुन जी के गुरु भगवान दत्तात्रेय जी का चित्र है I

घी के ग्यारह दीपक चाँदी के बने हुए हैं जिनकी क्षमता लगभग दो किलो घी की है I छोटी ऊँगली के बराबर मोटाई की रुई की लगभग एक फीट लम्बी बत्तियाँ बनाकर दीपकों में रखी जातीं हैं जो 3-4 दिन चलती हैं I प्रतिदिन कितना घी जलता है यह जानकारी महंत और पुजारी को भी नहीं है I उषा ट्रस्ट द्वारा सीमित मात्रा में दीपकों के लिये घी दिया जाता है लेकिन दर्शनार्थियों द्वारा भारी मात्रा में घी चढ़ाया जाता है I घी का संग्रह रखने के लिये मंदिर में ही 1000 किलो की क्षमता वाले टैंक हैं, दर्शनार्थी द्वारा लाया गया घी उसी समय यथासंभव दीपकों में डाला जाता है, किंतु दीपकों के भरे होने पर घी टैंक में संगृहीत किया जाता है I चढ़ावे के घी का दुरूपयोग नहीं हो सकता, पू. महंत जी से चर्चा के दौरान यह ज्ञात हुआ की दैनिक भोग में लगने वाला घी भी उस भंडार से लेकर बाज़ार का ख़रीदा हुआ ही होता है I अखण्ड ज्योति की घी का दुरूपयोग कभी किसी ने किया था, परिणाम में उसे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा I इसलिए एक बूँद भी घी का दुरूपयोग नहीं होता है, ऐसे हैं हमारे जाग्रत देव श्री राजराजेश्वर प्रभु I


न्याय की देवी अहिल्या ने होलकर राज्य की राजधानी महेश्वर ही निश्चित की I देवी अहिल्या ने अपने जीवन काल में केवल तीन प्रणाम किये, प्रथम रिद्धी-सिद्धि दाता श्री गणेश, द्वितीय श्री राजराजेश्वर एवं तृतीय माँ नर्मदा को I देवी माँ अहिल्या के स्वर्गवास के बाद आज भी प्रति सोमवार सायं पाँच बजे देवी माँ अहिल्या की पालकी राजराजेश्वर पूजा एवं प्रसाद अर्पित करने हेतु आतीं हैं I देवी की पालकी इस मंदिर के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं जाति I होलकर राज्य शासन काल में श्री राज राजेश्वर की शोभा यात्रा को गार्ड आफ ऑनर (राजकीय सम्मान) प्रदान किया जाता था I जैसा कि उज्जैन महाकाल को आज भी श्रावण तथा भादों माह की अंतिम सवारी पर किया जाता है I

इसलिए मेरे नवयुवक साथियों उठो और जागो, प्राण प्रण से एक कदम तो आगे रखो दूसरा कदम अपने आप बढेगा और उन्नति का मार्ग सुगम होगा I एक बार महेश्वर श्री राजराजेश्वर के दर्शन करने अवश्य जाये I
इस समाज को समुद्र मानें, इसमें जो डालोगे वही पुनः प्राप्त होगा, क्योंकि समुद्र अपने पास कुछ नहीं रखता वापस कर देता है I

"हक़ के रौदाई हैं, कातिल को मिटा डालेंगे ,
गर्दिश वक्त की आई, तो बदल डालेंगे ,
हमने जिस दौर को चाहा, बदल डाला है,
और अब जिसे चाहेंगे, बदल डालेंगे I
 "राजराजेश्वर मंदिर में युगों-युगों से देसी घी के ग्यारह नंदा दीपक अखण्ड रूप से प्रज्वलित हैं, इतिहासकारों की दृष्टि में 11 दीपक अखण्ड ज्योति में और कहीं नहीं हैं I मंदिर के गर्भ गृह में दक्षिण पश्चिम कोने पर सात दीपक हैं और उत्तर-पूर्वी कोने पर चार हैं जिनका पश्चिम उत्तरी कोने पर लगे पाँच फुट लम्बे आयने (दर्पण) में स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई देता है I भारत के अन्य किसी मंदिर में बिरले ही इतनी अधिक संख्या में शताब्दियों से अखण्ड दीपक प्रज्वलित हों I मंदिर को बड़ा सिद्ध स्थल मन जाता है, यहाँ पर भक्तों की मनोकामना आज भी उसी तरह पूरी होती है जिस प्रकार उनके जीवन काल त्रेतायुग में होती थी I उनके महेश्वर स्थित समाधी स्थल पर बने मंदिर का नाम "राजराजेश्वर मंदिर" है I यह मंदिर महेश्वर में नर्मदा तट पर किले के अन्दर है I मंदिर के गृहस्थ महंत किरान गिरी उनकी सात पीढ़ी से हैं I मुख्य मंदिर की स्थापत्य कला से उसके कलचुरी एवं परमार काल 11 वीं शताब्दी में जीर्णोद्धार के होने का आभास होता है I मंदिर मे नित्य पूजा पाठ महंत के मातहत ब्राह्मन कर्मचारी द्वारा की जाति है I


महाराज क्रतवीर्य ने पुत्र कार्तवीर्य के शरीर के उपचार के लिये भगवान दतात्रेय की सेवा अर्चना की और उनसे पुत्र के स्वस्थ सुंदर शरीर की कामना की थी I तब भगवान दतात्रेय ने एकाक्षरी मंत्र का जप और श्री गणेश जी की आराधना बारह वर्ष तक करने का उपदेश दिया था I परिणाम स्वरुप श्री गणेश जी की कृपा से कार्तवीर्य को सुंदर शरीर और सहस्त्रबाहु प्राप्त हुए थे I चूँकि यहाँ भगवान दत्त का प्रसंग आया है अतः उनके अवतार की संगक्षिप्त चर्चा करना उचित होगा I

अघोर पाप और विनाश के बाद ही सदैव ही, मानव और जीवों के ह्रदय में ज्ञान-प्रेम  का प्रकाश फैलाने के लिये ही प्रायः भगवान के अवतार होते हैं I वेसे तो अवतार के कई प्रयोजन होते हैं किंतु जीवों का अज्ञान-अंधकार-निवारण अवतार का परम प्रयोजन होता है I जब तक इस सृष्टि में जिव हैं, तब तक इस कार्य को अविरत रूप से चलाना अपरिहार्य है I यही सोचकर भगवान विष्णु ने सदगुरु श्री दत्तात्रेय जी के रूप में अवतार ग्रहण किया I अवतारों में चौबीस अवतारों का निर्देश श्री मदभागवत कार ने किया है I उन चौबीस अवतारों में सिद्धराज भगवान श्री दत्तात्रेय का अवतार छटा माना जाता है I इस अवतार की पारी समाप्ति नहीं है इसलिए इन्हें "अविनाश" भी कहा जाता है I समस्त "सिद्धों" के राजा होने के कारण ये "सिद्धराज" कहलाते हैं I योग विद्या में असाधारण अधिकार रखने के कारण इन्हें "योगिराज" भी कहा जाता है I और योग चातुर्य से इन्होने देवताओं का संरक्षण किया इसलिए ये "देवदेवेश्वर" भी कहलाते हैं I
अत्रि मुनि ने प्रदियों के दुख निवारण करने वाले पुत्र की कामना की तथा इस अभिप्राय से उन्होंने श्री विष्णु की भावपूर्ण घोर तपस्या की I भगवान विष्णु अत्रि मुनि की तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुये और कहा की "हे मुनिवर मैने निज को ही तुम्हें दान कर दिया है I पुत्र के रूप में मै तुम्हारे घर में जन्म लूँगा I " इस कारण इनकी "दत्त" संज्ञा हुई  तथा "आत्रेय"दोनों नामों के संयोग से इनका नाम दत्तात्रेय पड़ा I भगवान विष्णु ने "दत्तात्रेय" जी के रूप में अवतरित होकर संसार का बड़ा ही उपकार किया है I कार्तवीर्य अर्जुन को भगवान दत्तात्रेय का अनुग्रह प्राप्त था I उन्ही की कृपा से वे तेजस्वी और यशस्वी हुए थे I
महाराज क्रतवीर्य के निधन के पश्चात् उत्तराधिकारी कार्तवीर्य अर्जुन से राज्यशासन ग्रहण करने के लिये आमात्य एवं प्रजाजनों ने निवेदन किया और राज्याभिषेक के लिये तत्पर हुए I किंतु कार्तवीर्य ने उनका यह निवेदन यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया की "अग्निहोत्र" (यज्ञ) ताप, वेद पाठन, अतिथि सत्कार, वैश्वदेव सत्य ये सब इष्ट हैं I कूप, सरोवर बनवाना, उपयुक्त पात्र को दान देना आदि पूर्त हैं I प्रजा से कर लेकर उनके सत्यपालन में यदि  समर्थ हुआ और दूसरों से प्रजा पालन कराता रहा तो मेरी सब इच्छा पूर्ति नष्ट हो जावेगी I इनके नष्ट होने से मुझे निश्चय ही


नरक की प्राप्ति होगी I अतः मुझे प्रजापालन में पूर्णरूप से प्रथम सक्षम होना चाहिए तभी मैं राज्यशासन ग्रहण करूँगा इससे पूर्व नहीं I
कार्तवीर्य अर्जुन का यह निश्चय सुनकर गर्ग मुनि ने कहा - वास्तव में आप यदि राजा का ऐसा आचरण करना चाहते हो जैसा कि आपने कहा है तो आप सह्यादी की गुफाओं में जाकर भगवान दतात्रेय की सेवा कर उनसे उपदेश ग्रहण करें I वे देवताओं के द्वारा उपासित हैं I उन्होंने स्वर्ग का राज्य वापस कराने में इन्द्र सहित देवताओं की सहायता की थी I यह सुनकर कार्तवीर्य अर्जुन ने प्रश्न किया कि भगवान दतात्रेय ने किस प्रकार देवताओं की उपासना प्राप्त की और किस प्रकार राजा इन्द्र को उनका राज्य वापस करवाया I
गर्ग मुनि ने उस वृतांत को कार्तवीर्य को सुनाया - एक समय जम्भासुर दानवों के राजा ने देवताओं से भयंकर युद्ध छेड़ दिया I देवराज इन्द्र और उनके साथी देवताओं ने दानवों का सामना किया I किंतु उनकी पराजय हुई और वे इधर-उधर भाग गये I फलतः इन्द्र से उनका राज्य छीन गया I देवराज इन्द्र निराश होकर देवगुरु ब्रहस्पति के पास गये और उन्हें पूर्ण व्यथा-कथा सुनाई I इस पर देवगुरु ने कहा की यदि आप दानवों पर विजय चाहते हैं तो सिद्धराज दत्तात्रेय जी के पास जाकर उनसे अनुनय विनय करो I वे ही तुम्हारा कल्याण करेंगे I देवराज इन्द्र के साथ सभी देवगण दत्तात्रेय जी के पास पहुँचे और उन्होंने उनकी सेवा की I अंततः दत्तात्रेय जी ने द्रवित होकर देवताओं से आने का कारण पूछा I देवताओं ने अपनी कथा-व्यथा कह सुनाई I देवताओं की बात सुनकर भगवान दत्तात्रेय ने आदेश दिया की आप लोग जाकर दानवों को युद्ध के लिये ललकारें और उन्हें मेरे पास ले आएं I वे अपनी दृष्टि से दानवों को भस्म कर देंगे I देवताओं ने उनकी आज्ञा का पालन किया और दानवों ने भी उनका पीछा किया और दत्तात्रेय जी के आश्रम तक गये I वहाँ लक्ष्मी स्वरुप नारी को देखकर दानवगण युद्ध करना भूलकर उस नारी पर मोहित हो गये I उस लक्ष्मी स्वरुपा नारी को पालकी में बिठाकर, पालकी को सिर पर उठाकर चल पड़े I यह देखकर दत्तात्रेय जी ने कहा की हे देवगण विधाता आपके अनुकूल है I क्योंकि लक्ष्मी सप्तम स्थान का अतिक्रमण कर दानवों के सिर पर जा बैठी है जिससे दानवों का विनाश स्पष्ट है I दत्तात्रेय जी ने देवताओं को बतलाया की जब लक्ष्मी चरण में हो तो गृह्दात्री होती है I अस्थि में हो तो रत्न आदि देती है I गुह्य स्थान में हो तो स्त्री, अंक में हो तो पुत्र, ह्रदय में हो तो सर्व मनोरथ प्रदायनी होती है I कंठ में हो तो कंठ भूषण देती है, प्रवासी प्रिय जनों के समागम में सहायक होती है I वाणी में हो तो लावण्य कवित्व शक्ति और यश देती है और लक्ष्मी यदि सिर पर आसीन हो तो विनाश करती है I तो हे देवगण, अब दानवों का विनाश निश्चित है I अतः आप लोग अब उन पर सहज ही विजय प्राप्त कर सकते हैं I तब देवताओं ने दानवों पर आक्रमण करके उनका विनाश कर दिया और लक्ष्मी स्वरुप नारी को दत्तात्रेय जी के पास ले आये I देवताओं ने दत्तात्रेय जी का पूजन किया और उनकी  जय-जयकार करते हुये चले गये I


यह प्रसंग सुनाकर गर्ग ऋषि ने कहा कि हे राजकुमार यदि आप भी अपने अभिमत में सफल होना चाहते हैं तो भगवान दत्तात्रेय जी की सेवा में उपस्थित होइए I
ऋषि गर्ग का यह कथन सुनकर कार्तवीर्य अर्जुन भगवान दत्तात्रेय की सेवा में उपस्थित हुये और तन, मन, धन, अर्पित कर क्षत्रिय धर्म को रखते हुये विनय और शास्त्र ज्ञान के अनुसार दत्तचित होकर भक्तिभाव से उनकी पूजा अर्चना में लग गये I अत्रि पुत्र दत्त की दुष्कर आराधना और सेवावृत्ति को देखकर दत्तात्रेय जी प्रसन्न हुये और उन्होंने वरदान मांगने को कहा I तब कार्तवीर्य ने कहा कि हे भगवान मुझे उत्तम सिद्धि का वरदान दीजिये I मुझमें अणिमा- लाघिमादी सिद्धियों का समावेश हो (वह सिद्धि जिसके द्वारा योगी अतिसूक्ष्म रूप धारण कर सकता है, लघुभाव प्राप्त करना हाथ की सफाई आदि की सिद्धियाँ) मुझे ज्ञान शक्ति और पौरुष में कोई जीत सके I मै दान दक्षिणा करने में तथा भगवान कि अविचल भक्ति में मनसा-वाचा-कर्मणा में रात रहूँ I मैं अपने पराक्रम से सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर स्वधर्म पालन द्वारा सत्य एवं सन्मार्ग का पालन करते हुये प्रजा को सुखी एवं प्रसन्न रखूं I मैं कभी सन्मार्ग का परित्याग करके यदि असत्य मार्ग का आश्रय लेकर अधर्म कार्य में प्रवत्त होऊं तो श्रेष्ट पुरुष मुझे सन्मार्ग पर लाने के लिये शिक्षा दें I मैं सहस्त्रबाहु बन जाऊं और सहस्त्रार्जुन कहलाऊं I युद्ध में मेरी सहस्त्रभुजाएँ हो जावें, किंतु घर पर मेरी दो ही भुजाएँ रहें और रण भूमि में सभी सैनिक मेरी एक हज़ार भुजाएँ देखें I संग्राम में हजारों शत्रुओं को मौत के घाट उतर कर संग्राम में ही लड़ते हुए जो मुझसे अधिक शक्तिशाली और श्रेष्ट पुरुष हो उसके हाथों मेरी म्रत्यु हो I पदमपुराण में कहा गया है कि कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय जी से जो वरदान मांगे उनमे विशेषकर एक वरदान उल्लेखनीय यह भी था कि "मेरे राज्य में लोगों को अधर्म कि बात सोचते हुए भी मुझसे भय हो और वे अधर्म के मार्ग से हट जाए I " इस वरदान के करण कार्तवीर्य अर्जुन के राज्य में यदि किसी भी मनुष्य ने अधर्म कि बात मन में सोचने का ध्यान करता तो उसी समय उसे राजा का भय हो जाता था I इससे राज्य में अमन चैन, सुख और शांति व्याप्त रहती थी और राजा का शासन सुचारू रूप से चलता रहता था I भगवान दत्तात्रेय को प्रश्न करने के लिये राजा ने "भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ" का धार्मिक आयोजन किया था I
ब्रह्माण्ड पुराण में बताया गया है कि जब कार्तवीर्य अर्जुन राजधानी महिष्मति में राज्य कर रहे थे तब एक समय देवर्षि नारद जी ने महिष्मति नगरी में आकर राजा को दर्शन दिये I राजा ने ह्रदय से यथोचित उनका स्वागत किया और उनसे मोक्ष और दृव्य आनंद का मार्ग बतलाने के लिये निवेदन किया I नारद जी ने तब महाराज सहस्त्रबाहु को " भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ " का धार्मिक आयोजन करने के लिये उपदेश दिया था I महाराज कार्तवीर्य ने अपनी महारानी के साथ नर्मदा तट पर विधिवत " भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ " का धार्मिक आयोजन किया I यज्ञ के समापन के पश्चात् राजा


के गुरु भगवान दत्तात्रेय प्रसन्न हुये और राजा से वरदान मांगने के लिये कहा I राजा ने हाथ जोड़कर एक हज़ार हाथ हो जाने का वरदान माँगा I भगवान दत्तात्रेय ने कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान देते हुये "तथास्तु" कहते हुए कहा कि ऐसा ही होगा और यह भी कहा कि " तुम चक्रवर्ती सम्राट बनोगे तथा जो व्यक्ति सायं और प्रातः काल " नमोस्तु कार्तवीर्य " इस वाक्य से तुम्हारा स्मरण करेंगे उन पुरषों का द्रव्य कभी नष्ट नहीं होगा I " भगवान दत्तात्रेय से वर प्राप्त कर वे धर्म पूर्वक सप्तद्वीप प्रथ्वी का पालन करने लगे और शत्रुओं पर विजय प्राप्त की I उस  तेजस्वी राजा के लिये वे सभी वरदान उसी रूप में सफल हुये I उसके पश्चात् कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय जी को प्रणाम किया और उनसे विदा ली I
विगत कुछ वर्षों में हैहयवंशीय क्षत्रियों  में इतनी जागरूकता आई है की (मह्स्मती) महेश्वर में श्री राजराजेश्वर के दर्शन करने की  धारणा जागी और दर्शन से जो लाभ हुआ उसमें लोगों ने 100 ग्राम घी चढ़ाया उसके बाद तो पीपों से घी चढ़ाया और लाभ अर्जित किया I आज सिर्फ हैहयवंश समाज के ही नहे वरन अन्य  समाज की जागरूकता यह है परिणाम है कि राजराजेश्वर मंदिर परिसर में विशाल मंदिर का निर्माण हो रहा है I लगभग दस  वर्ष पूर्व इसका शिलान्यास हुआ तब योगना एक लाख रूपए कि थी परन्तु जब समाज के जागरूक वर्ग को यह जानकारी हुई तो आपस में इस बात पर बहस हो गई कि इतनी काम राशि क्यों निश्चित हुई अर्थात आज कि तारीख में यह मंदिर 21 लाख का बन रहा है I अत: ना हमें केवल इसके दर्शन मात्र से लाभ उठाना चाहिए बल्कि इस निर्माण में तन, मन धन से बढ़ चढ कर सहयोग देना चाहिए|  अपने समाज को समुद्ररूपी अमृत माने और पुरानो और कथाओ तथा समाज और अन्य लोगो द्वारा अनुभव के आधार पर यह बात सामने आई है कि महेश्वर सहस्त्रबाहु मदिर और सहस्त्रबाहु महाराज का कितना महत्व है, मान्यताओ के अनुसार यदि कोई भी व्यक्ति महेश्वर सहस्त्रबाहु मदिर और सहस्त्रबाहु महाराज  का दर्शन और अराधना करता है तो उसे कई सुख साधन और सम्पति मे कमी नहीं होता है|

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बर्तन कारोबारियों का मूल इतिहास

सहस्त्रार्जुन जयन्ती