श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु सत्संग

(हैहयवंश सार पुस्तक का दुसरा अंश) 

आज के परिवेश में जब कि हैहयवंश क्षत्रिय समाज अपने अस्तित्व को बचाने और पुन: स्थापित करने के लिए संघर्षरत है, ऐसे में सामाजिक संगठन, एकता, सद्भभावना, और मजबूत सामाजिक परिवेश की स्थापना के लिए कथा या सत्संग भी एक बड़ा माध्यम बन सकता है, जिसके द्वारा हम जन जन तक अपनी पहचान और अपनी खोई हुयी अस्तित्व को पुन्ह: से प्राप्त कर सकते है| जिस प्रकार भगवान विष्णु के रूप की कथा हम सत्यनारायण कथा के रूप में सुनकर अपनी मनो कामना पूर्ण करते है या फिर जिस प्रकार समाज में अन्य समुदायों द्वारा भिन्न भिन्न इष्ठ देवी-देवताओं  के सत्संग अपने अपने समुदाय को अपने कर्म अनुसार इच्छित फल प्राप्ति और समुदाय के प्रचार - प्रसार के लिए किये जाता है ठीक उसी प्रकार हम समस्त हैहयवंशी क्षत्रिय समाज के लोगो को भी अपने अपने घरों और सामाजिक स्थलों पर छोटे-बड़े और संभव हो तो बृहद रूप से भगवान विष्णु के एक अंशअवतार श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु सत्संग का आयोजन बड़े ही धूम धाम से करना चाहिए|  हम इसे अनेक शुभ अवसरों पर या फिर कभी भी सप्ताह, वर्ष या दिन कर सकते है| इससे न सिर्फ समाज के लोगो के बीच में परस्पर सद्भ-भाव की भावना जागृती होगी बल्कि हैहयवंश का प्रचार प्रसार के साथ हमें दिव्यरूपी महाराज राज राजेश्वर सह्स्त्राबाहु अर्जुन का आशीर्वाद भी प्राप्त होता रहेगा|  साथ ही सामाजिक परिवारों का आपस में परसपर संपर्क भी स्थापित करने में हम सफल हो सकेंगे| सत्संग के लिए कोई बहुत बड़े आयोजन या पर्व और खर्च की जरूरत नहीं पडती है आप चाहे तो स्वंय या किसी विद्वान पंडित जो आप के सामाजिक धर्म-संस्कार और रीति रिवाज को जानता हो या फिर हमारा इतिहास, जो कि कोई भी पढ़ा लिखा व्यक्ति वैदिक ग्रंथो, पुराण, गीता और महाभारत भली भाति जानता हो वह इस कथा को नीचे लिखे गए पैराग्राफ के  अनुसार  हिंदू-रीतिरिवाज के  पूजा-पाठ और धर्म-संस्कार पूर्वक कर  सकता है| भगवान श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु महाराज की फोटो पूज्यनीय स्थल और घर की सम्मान-जनक जगह पर जहाँ सबकी निगाह पहुच सके अवश्य लगानी चाहिए|  यदि वह कुछ भी नहीं कर सकता तो कम से कम वर्ष में एक बार श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु की पूजा उनके जन्म दिन पर अवश्य ही करनी चाहिए और माह्श्मती (महेश्वर), श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु मंदिर के दर्शन एक बार अवश्य ही करने जाना चाहिए, तथा इसके लिए वह दूसरों को भी प्रेरित करे और श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु के गुणों की महिमा सुने और सुनाये इतने मात्र से ही उनकी कोई भी मनोकामना पूरी हो जाती है तथा कष्टों से मुक्ति मिल जाती है| जिस प्रकार ज्ञान बाटने से कभी नहीं घटता है ठीक उसी प्रकार से सामाजिक कार्य और समाज सहयोग करने से हम पुण्य के भागी होते है साथ ही साथ अपने समाज का प्रचार प्रसार कर हम पुन: से समूर्ण समाज में एक उच्च स्थान बनाने में सफल हो सकते है|

सृष्टि के रचयिता ब्रम्हा जी के मानस पुत्र मरीच से कश्यप और अदिति से सूर्य की उत्पत्ति हुयी। सूर्य से वैवस्वत मनु की उत्पत्ति हुयी। पुराणों के अनुसार मनु आर्यों के प्रथम पूर्वज थे। पौराणिक इतिहास के अनुसार मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु और पुत्री इला थी। इक्ष्वाकु से सुर्यवां का विस्तार हुआ। मनु ने पुत्री इला का विवाह चन्द्रमा के पुत्र बुध से किया। बुध से ही चन्द्रमा का विस्तार हुआ। इला के नाम पर मातृगोत्र से यह 'ऐल वां के नाम से भी सुविख्यात हुआ। बुध और इला से पुरूरवा का जन्म हुआ। महाराज पुरूरवा ने ऐलवां की प्रतिस्थापना प्रतिष्ठानपुर
वर्तमान में इलाहाबाद में की और उसे राजधानी बनाया ।महाराज पुरूरवा का विवाह उर्वशी से हुआ और उनके आठ पुत्र हुये जिनमें आयु और अमावस प्रमुख थे। आयु ने स्वर्भानु की प़ुत्री प्रभा से विवाह किया और उनके पॉंच पुत्र हुये जिन में ज्येष्ठ पुत्र नहुष थे। महाराज नहुष बहुत ही प्रतापी थे और उनकी छह संताने हुयी जिनमें यति और ययाति प्रमुख थे। यति मुनि हो गये और राज्य का त्याग कर दिया। ययाति को राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। राजा ययाति बङे पराक्रमी धर्मनिष्ठ सत्यवादी एवं प्रजापालक थे।
पुराणों में हैहयवंश का इतिहास महाराज चंद्रदेव की तेईसवी पीढ़ी में उत्पन्न महाराज वीतिहोत्र के समय तक पाया जाता है I श्री मदभागवत के अनुसार महाराज ब्रह्मा की बारहवी पीढ़ी में महाराज हैहय का जन्म हुआ और हरिवंश पुराणों के अनुसार ग्यारहवी पीढ़ी में महाराज हैहय तीन भाई थे , जिनमे हैहय सबसे छोटे भाई थे I शेष दो भाई - महाहय एवं वेणुहय थे जिन्होंने अपने - अपने नये वंशो की परंपरा स्थापित की I
चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है, महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व् शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमे तुवेर्शु सबसे पितृ भक्त पुत्र थे इन्ही के वंश में कृतवीर्य तथा उनके पूरा के रूप में कार्त्यवीर अर्जुन उत्पन्न हुए कृतवीर्य के पुत्र होने के नाते ही उन्हें कार्त्यवीर अर्जुन और सस्त्र बांहों (भुजाओ) का बल का आशीर्वाद पाने के कारण सहस्त्राबाहु अर्जुन भी कहा जाता है| महाराज धनद के शासन का उत्तराधिकारी के रूप में उनके जयेष्ट पुत्र क्रतवीर्य हुए I इनकी महारानी का नाम कौशकी था I महाराज क्रतवीर्य ने अपनी सैन्यशक्ति का विस्तार किया I सूर्यवंशी दक्षिण के अनार्य राजाओ से युद्ध कर उन्हें परास्त किया और सब राजाओ को अपने आधीन कर चक्रवर्ती पद प्राप्त कर लिया I इनको एक पुत्र हुआ जिनका नाम अपने नाम पर कार्त्यावीरर्जुन ( जिन्हें सहस्त्रबाहु हैहयवंश समाज के कुलपति भी कहते है ) नाम रखा गया I महाराज कार्त्यावीरर्जुन ( सहस्त्रबाहुअर्जुन) का जन्म कार्तिक शुक्ल सप्तमी, कृतिका नक्षत्र , सोमवार को हुआ I सुकृति , पुद्यागंधा , मनोरमा , यमघंत्ता , बसुमती , विष्ट्भाद्र और मृगा आदि इनकी रानियाँ थी

महाराज हैहय से पूर्व महाराज चंद्रदेव के पशचात क्रमशः महाराज बुद्धदेव , महाराज पुरुरुवा , महाराज आयु , महाराज नहुष , महाराज ययाति , महाराज यदु , महाराज सहस्त्रजित , महाराज शतजित शासक रह चुके थे I महाराज चंद्रदेव स्वयं बड़े प्रतापी , तेजस्वी और अमृतमय मेधावी थे I महाराज चंद्रदेव के पुत्र बुद्धदेव का विवाह सुर्यवंश के संस्थापक महाराज इश्चाकू क़ी बहिन कुमारी इलादेवी के साथ हुआ I महाराज बुद्धदेव बड़े पराक्रमी , बुद्धिमान और रूपवान थे I महाराज हैहय के बाद युवराज धर्म गद्दी पर बैठे I "यथा नाम तथा गुण" के वे पालक रहे I उन्होंने प्रदेश में शांति , व्यवस्था और न्याय क़ी स्थापना क़ी I इनके नेत्र नाम का एक पुत्र था जो महाराज धर्म के बाद सिहासनासीन हुए I इन्होने अपने पिता के शासन को अधिक सुद्रढ़ बनाया तथा प्रजा के दुःख सुख क़ी ओर अधिक सक्रिय रहे I
महाराज धर्म के पश्चात् कुन्ती महाराज बने I उनका विवाह विद्यावती से हुआ I पत्नी की प्रेरणा से महाराज कुन्ती ने धार्मिक कार्यो में अधिक रूचि ली तथा राज्य को और भी अधिक सुद्रण बनाया I महाराज कुन्ती के सौहंजी नाम का पुत्र हुआ जो बाद में गद्दी का मालिक बना I महाराज सौहंजी ने सौहंजिपुर नाम का एक नया नगर बसाया और  प्रतिष्ठानपुर से हटाकर इस नगर को अपनी राजधानी बनाया I आजकल सौहंजिपुर  नाम से विख्यात है जो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के अंतर्गत आता है I इनकी महारानी चम्पावती से महिष्मान नाम का पुत्र उत्तपन्न हुआ I
महाराज महिष्मान बड़े प्रतापी और वीर पुरुष थे I इन्होने दक्षिण प्रदेश का बहुत - सा छेत्र अपने अधिकार में कर लिया तथा विजित प्रदेश में आर्य संस्कृति और सभ्यता का बहुत प्रचार किया I महाराज महिष्मान ने अपने नाम पर महिष्मति नामक नगर की स्थापना की जिसे अपने राज्य की राजधानी बनाया गया I यह नगर आजकल औंकारेश्वर या मानधाता नाम से प्रसिद्ध है जो निमाड़ जिले में पश्चिमी रेलवे की खंडवा - अजमेर शाखा पर स्थित औंकारेश्वर रोड से सात मील दूर नर्मदा तट पर बसा हुआ है I इनकी महारानी सुभद्रा से भद्रश्रेय नाम का पुत्र उत्तपन्न हुआ I
महाराज महिष्मान के बाद जब भद्रश्रेय शासन पर आरुढ़ हुए तब हैहयवंशियो का राज्य बनारस से महिष्मति के आगे तक फैला हुआ था I सूर्यवंशियो और चंद्रवंशियो की अनबन प्रारंभ से ही चली रही थी I इसी को द्रष्टिगत करते हुए महाराज भद्रश्रेय ने अपनी राजधानी महिष्मति से हटाकर बनारस स्थापित की जो कुछ समय पश्चात् सूर्यवंशियो से लोहा लेने का कारण बना , क्योंकि उसके निकट अयोध्या सूर्यवंशियो की राजधानी थी I इस लोहा लेने का परिणाम यह निकला कि हैहयवंशियो को सदैव के लिए बनारस से हाथ धोना पड़ा I राजधानी परिवर्तन के पीछे उनकी धार्मिक प्रवृति अधिक प्रबल रही I इनकी महारानी दिव्या से युवराज दर्मद उत्तपन्न हुए महाराज भद्रश्रेय अधिक समय तक जीवित रह सके , इसलिए महाराज दुर्मद को बाल्यकाल में ही शासन की बागडोर संभालनी पड़ी I युवा होंने पर महाराज दुर्मद ने सूर्यवंशियो से लड़ाई मोल ली , जिसमे उन्होंने धन व् सामिग्री बहुत मात्रा में प्राप्त की I वह बड़े ही

पराक्रमी , द्रंद्व्रत्ति और विचारवान शासक थे I इनकी महारानी ज्योतिष्मति से धनद नाम का पुत्र उत्त्पन्न हुआ I इनका दूसरा नाम कनक भी है I
महाराज धनद का विवाह कम्भोजपुर के राजा शर्मा की सुपुत्री राखीदेवी के साथ हुआ I कहा जाता है कि इन्होने राज्य विस्तार के लिए काफी धन एकत्रित किया किन्तु उस धन का उपयोग कर सका I बाद में यह धन इनके वंशज तालजंघ आदि की भूमि में गढ़ा हुआ मिला I महाराज धनद की म्रत्यु अल्पावस्था में ही हों गई थी I इनके चार पुत्र हुए I क्रतवीर्य , क्रतोजा , कृतवर्मा और क्रताग्नी I
महाराज सहसतजित के पुत्र शतजित थे। शतजित के तीनों पुत्र हैहय, वेणुघ्य और हय बड़े ही पराक्रमी और धर्मात्मा थे। महाराज हैहय के चरित्र और वीरता के कारण ही उनके वंशज हैहयवंश वंशज विख्यात हुयें। महाराज हैहय से धर्मनेत्र उत्पन्न हुये। धर्मऩेत्र का विवह उल्कादेवी से हुआ और इनकी राजधानी माहेश्वरपुरी थी। राजा धर्मनेत्र से राजा कीर्ति उत्पन्न हुये। राजा कीर्ति का पुत्र साहंजि हुये। साहंजि का विवाह चंपावती से हुआ और इनके पुत्र का नाम माहिमान था। माहिमान अपने पिता के बाद राजगद्दी पर बैठे और अपनी शूर वीरता से दक्षिण प्रदेश का बहुत सा भाग अपने राज्य में मिला लिया। इनके द्वारा विजित प्रदेश में आर्य संस्कृति और सभ्यता का खूब प्रचार हुआ और दिग्विजयी आर्य नरेशों के इतिहास में इनका स्थान सुविख्यात है। दक्षिण प्रदेश में काफी दूर तक राज्य फैल जाने के कारण सुविधा की दृष्टि से महाराज माहिश्मान ने नर्मदा नदी के किनारे माहिश्मती नगरी बसाई और उसे ही अपनी राजधानी बनायी।
यह नगर वर्तमान समय में जिला ऩिर्माण में मान्धाता के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी रानी का नाम सुभद्रा था। राजा माहिश्मान के प्रतापशाली पुत्र भद्रसंन हुये। इनकी रानी का दिया थी। इस समय तक हैहय वंशियों का राज्य काशी तक फैल चुका था। हैहय एवं काशी कुलों की परस्पर स्पर्धा में दिवोदास के साथ हुये युद्ध में भद्रसेन के पुत्रों का वध कर दिया गया किन्तु भद्रसेन का एक पुत्र दुर्दम जीवित बच गये और कालोपरान्त राजा दुर्दम ने दिवोदास को पराजित करके अपने भाइयो के वध का प्रतिशोध लिया राजा दुर्दम और इनकी महारानी ज्योतिश्मती से राजा कनक (या धनद) उत्पन्न हुये। इनके द्वारा विजित प्रदेश में आर्य संस्कृति और सभ्यता का खूब प्रचार हुआ और  दिग्विजयी आर्य नरेशों के इतिहास में इनका स्थान सुविख्यात है। दक्षिण प्रदेश में काफी दूर तक राज्य फैल जाने के कारण सुविधा की दृष्टि से महाराज माहिश्मान ने नर्मदा नदी के किनारे माहिश्मती नगरी बसाई और उसे ही अपनी राजधानी बनायी। राजा कनक के चार सुविख्यात पुत्र कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि हुये। राजा कनक के ज्येष्ठ पुत्र कृतवीर्य उनके पश्चात राज्य के उत्तराधिकारी बने। वे पुण्यवान प्रतापी राजा थे और अपने समकालीन राजाओ मे वे सर्वश्रेष्ठ राजा माने जाते थे। इनकी रानी का नाम कौशिक था। महाराज कृतवीर्य से कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुये। इन्हे सहस्त्रार्जुन के नाम से भी जाना जाता है महाराज कृतवीर्य के पश्चात कार्तवीर्यार्जुन (सहस्त्रार्जुन)

जी राजगद्दी पर बैठे। महाराज कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्त्रार्जुन) जी का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। पौराणिक ग्रंथो में कार्तवीर्य अजुर्न के अनेक नाम अंकित है जैसे सहस्त्रार्जुन, कृतवीर्य, नन्दन, राजेश्वर, हैहयाधिपति, दषग्रीविजयी, सुदर्शन, चक्रावतार, सप्तद्वीपाधि आदि। महाराज कार्तवीर्यार्जुन जी के राज्याभिषेक में स्वयं दत्तात्रेय जी एवं ब्रम्हा जी पधारें। राजसिंहासन पर बैठते ही उन्होने घोषणा कर दी कि मेरे अतिरिक्त कोई भी शस्त्र -अस्त्र धारण नही करेगा। वे अकेले ही सब प्रकार से अपनी प्रजा का पालन और रक्षा करते थे। युद्ध दान धर्म दया एवं वीरता में उनके समान कोई नही था।
महाराज हैहय चन्द्रवंश के अंतर्गत यदुवंश के समकालीन थे और उन्होंने इसी वंश को अपने वैशिष्ठ्य के कारण हैहयवंश नाम की नई शाखा स्थापित की I महाराज हैहय अपनी तेजस्वी और मेधावी बुद्धि के कारण बाल्यकाल से ही वेद , शास्त्र , धनुर्विद्या , अस्त्र - शस्त्र संचालन , राजनीति और धर्मनीति में पारंगत हों गये थे I महाराज हैहय का विवाह राजा रम्य की राजकुमारी एकावली तथा उनके मंत्री की सुपुत्री यशोवती के साथ हुआ I इनके एक पुत्र हुआ , जो महाराज के स्वर्गारोहण के बाद राज्याधिकारी हुए I
महाराज हैहय ने मध्य और दक्षिण भारत में अनार्यो को बहुत दूर खदेड़ कर आर्य सभ्यता , संस्कृति और राज्य का विस्तार किया I इतिहास वेत्ता श्री सी सी वैद्य ने लिखा है कि इन्होने सूर्यवंशियो से भी डटकर युद्ध किया और उन्हें परास्त किया I हैहयो का राज्य नर्मदा नदी के आस- पास तक फैला हुआ था , जिसे इन्होने सुर्यवंश सम्राट सगर को हराकर प्राप्त किया था I पौराणिक काल में नहुष , भरत , सहस्त्रार्जुन , मान्धाता , भगीरथ , सगर और युधिष्ठिर ये ही सात चक्रवर्ती महाराजा हुए थे और इनमे तीन नहुष , सहस्त्रार्जुन और युधिष्ठिर को जन्म देने का श्रेय चन्द्रवंश को हैI सहस्त्रार्जुन हैहयवंश में ही जन्मे थे तथा सूर्यवंशी सगर से महाराज हैहय ने लोहा लिया था I  
महाराज सहस्त्रबाहु ने भगवान दत्तात्रेय जी को अपना गुरु बनाना स्वीकार किया और उनसे अस्त - शस्त्र संचालन की विद्या सीखी I हैहयवंश कुलपति सहस्त्रबाहु ने अपने गुरु की छत्रछाया में अपने भुजबल से जम्बू , प्लक्स , शत्मली , क्रुश , क्रौच , शाक और पुष्कर नाम के सातौ द्वीप जीतकर सप्तदीपेश्वर की उपाधि ग्रहण की I सातौ द्वीपों में विविध सात सौ यज्ञ किये , सब यज्ञो में लक्ष - लक्ष  दक्षिणा दी I यज्ञ स्तम्भ और बेदी स्वर्ण की बनवाई I कुछ स्थान पर सहस्त्रबाहु जो अब सास बहु नाम से मंदिर विख्यात है , के नाम का निर्माण कराया I यह मंदिर इस समय ग्वालियर और नागदा में आज भी देखे जा सकते है I इन दोनों मन्दिरौ की शिल्प शैली अपने आप में विशिष्टता लिए हुए गौरान्वित है|  महाराज सहस्त्रबाहु को कृतिम वर्षा के प्रथम आविष्कर्ता के रूप में भी जाने जाते है I इनकी शक्ति के विषय में अनेक प्रकार की किवदंतिया आज भी प्रचलित है I महाराज सहस्त्रबाहु ने अनेक छोटे बड़े राज्यों से युद्ध किया और उन्हें

परास्त किया I इनके शासन काल में राज्य की सीमा बढ़ी I पद्मपुराद्कार कालिका महात्मय में महाराज सहस्त्रबाहु का उल्लेख इस प्रकार से किया : -
               " सोमवंशी महाराज कार्तावीर्यत्मर्जुना I
           
        तस्यांवाये समुत्पन्न वीरसेनादयो नृपः I I "
महाराज सहस्त्रबाहु की लड़ाई परशुराम के साथ हुई थी , उसमे महाराज सहस्त्रबाहु और उनके वंशजो की अप्रत्यक्ष रूप से समाप्ति हों गयी थी I कहा जाता है कि जनता के अनुरोध पर कश्यप ऋषि ने कुछ हैहयवंशी क्षत्रियो को पुनः महाराज सहस्त्रबाहु का उत्तराधिकारी मानकर राज्य शासन प्रदान किया था I इस समय महाराज सहस्त्रबाहु के बचे हुए पांच पुत्रो में सबसे जयेष्ट पुत्र जयध्वज को शासनाधिकारी बनाया गया I महाराज जयध्वज को क्रताग्नि भी कहते है I अपने काल में महाराज जयध्वज बड़े पराक्रमी पुरुष थे I इस समय तक हैहयवंशियो के राज्यों क़ी राजधानी महिष्मति थी I किन्तु महाराज जयध्वज स्वयं भगवान दतात्रेय के परम उपासक थे I इनकी रानी का नाम सत्य-भू था , जिससे तालजंघ नाम का पुत्र उत्तपन्न हुआ I महाराज जयध्वज के बाद युवराज तालजंघ राज्याधिकारी हुए I इनके सौ पुत्र उत्तपन्न हुए , जो तालजंघ-वंशी कहलाये I इनके समय में हैहयवंश इनके पांच बेटो के नाम पर पांच कुलो में विभक्त हों गया I बीतिहोत्र कुल , भोज कुल , अवान्तिकुल , शौदिकेय कुल और स्वयाजात कुल Iपौराणिक काल के इतिहास में महाराज बितीहोत्र अंतिम राजा हुए जो कि विभाजित राज्य के राज्याधिकारी हुए I इनके भाग में दक्षिण प्रदेश आया था और इन्होने अपने राज्य की राजधानी पुनः महिष्मति बनायीं I महाराज बितीहोत्र के सबसे बड़े राजकुमार अनंत के पुत्र दुर्जय हुए जिन्होंने अवंतिकापुरी , जिसे आजकल उज्जैन कहते है , बसाई I पौराणिक युग के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि महिष्मति हैहयवंशियो कि राजधानी सदेव बनी रही है I
श्री राजराजेश्वर भगवान कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन बहुत लोक प्रिय सम्राट थे विश्व भर के राजा महाराजा मांडलिक, मंडलेश्वर आदि सभी अनुचर की भाँति सम्राट सहस्त्रार्जुन के दरबार में उपस्थित रहते थे I उनकी अपर लोकप्रियता के कारण प्रजा उनको देवतुल्य मानती थी I आज भी उनकी समाधी स्थल "राजराजेश्वर मंदिर" में उनकी देवतुल्य पूजा होती है I उन्ही के जन्म कथा के महात्म्य के सम्बन्ध में मतस्य पुराण के 43 वें अध्याय के श्रलोक 52 की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : -


यस्तस्य कीर्तेनाम कल्यमुत्थाय मानवः I
तस्य वित्तनाराः स्यन्नाष्ट लभते पुनः I
कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदित धीमतः II
यथावत स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महितये II
जिसका अर्थ है कि  जो मनुष्य प्रातः उठकर श्री कार्तवीर्य अर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का नाश नहीं होता है I यदि नष्ट हो भी जाय तो पुनः प्राप्त हो जाता है I जो मनुष्य श्री कार्तवीर्य अर्जुन के  जन्म वृतांत को कहता है उसकी आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाति है वह स्वर्गलोक में प्रशंसित होता है I

जिस भक्त का सर झुके ,सहस्त्रार्जुन के आगे !!
सारी दुनिया झुकती है ,उस इंसान के आगे !!
१२सुबह शाम भजन करले ,मुक्ति का यतन कर ले !!
छुट जायेगा जन्म -मरन ,सहस्त्रार्जुन का सुमिरन कर ले !!
सहस्त्रार्जुन जी की कृपा सभी पर निरंतर बनी र !!
अनंत कोटी ब्रम्हांड नायक राजा धिराज योगिराज परब्रम्ह श्री सचिदानंद सदगुरु सहस्त्रार्जुन महाराज की जय !!
ॐ सहस्त्रार्जुनाय नमो नम: शिर्डी साईं नमो नम: जय जय कार्तवीर्यार्जुनाय नमो नम:
ॐ सहस्त्रार्जुनाय नमो नम: ॐ जय जय कार्तवीर्यार्जुनाय नमो नम:
(महाभारत)
हरिवंश पुराण के अनुसार - जो मनुष्य सहस्त्रार्जुन के जन्म आदि का पाठ नित्यशः कहते और सुनते है उनका धन कभी नष्ट नहीं होता है तथा नष्ट हुआ धन पुनः वापस आ जाता है।  
"कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्र वान येन सागर परयन्ता धनुषा निर्जिता माहि "
जिसका अर्थ है कि  कार्तवीर्य अर्जुन ने अपने बाहुबल से समुद्र के सहित सम्पूर्ण वसुंधरा को जीत लिया था|. इसी प्रकार वायु पुराण के अनुसार -
                     तेनयं प्रथ्वी क्रतस्ना सप्त द्वीपा सपत्तना !
सप्तो दधि परिक्षिप्ता क्षात्रेना विधिना जिता!!
                     कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान !
                     तस्य स्मरण मात्रेण ह्रतं नसतं च लभ्यते

जिसका अर्थ है कि  महाराजा ने सातों द्वीप और सातों समुन्द्र से घिरी यह प्रथ्वी अपने क्षात्र धर्म की विधि से विजय की. महाराजा सहस्त्रबाहु  ऐसे महा प्रतापी राजा हो गए कि जिनका  एक हजार बार नाम का जप करने से नस्ट हुयी, खोयी हुयी वस्तु प्राप्त हो जाती है। 
महाराज सहस्त्रार्जुन इतने वन्दनीय माने गए है कि यात्रा शुरू करने से पूर्व कर्य्सिधि के लिए और वापस सकुशल लौटने हेतु जन इंका स्मरण करते थे
वैन्य प्रथु हैहयमर्जुन्म चं शाकुंतले भारत नल च राम च|
यो वैश्यमरित  प्रभाते तस्थार्थ लाभ विजयरथ हस्ते ||
जिसके अनुसार वेणु, प्रथु, सहस्त्रार्जुन, दुष्यंत, भरत, नल, तथा राम का जो जन प्रात: स्मरण करता है उसके हाथ में यश और अपने कार्य प्रयोजन का लाभ तथा विजय प्राप्त होती है| महाराज सहस्त्रार्जुन के ब्बरे में यह कहा जाता है कि
न् नूनं कार्त्यावीर्स्य गति यासय्न्ति पार्थिवा|
य्घेदास्तेपोभ्र्वा प्रश्रययेण श्रुतेन च||
यज्ञ, दान, ताप, विनय और विद्या में कार्त्यावीर सहस्त्रार्जुन की सामान कोई भी राजा राज्य नहीं कर सका| महाराज कृतवीर्य व रानी पदमनी ने पुत्र प्राप्ती के लिए श्री विष्णु जी की तपस्या व्रत किया था जो कीभविष्य पुराणके अध्याय 106 मे भगवान राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन की जन्म कथा अनन्त व्रत माहात्म्य के अंतर्गत दी गयी है। जो की इस प्रकार है
श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर बोले- भगवान्, भक्तिपूर्वक नारायण की आराधना करने से सभी मनोवांछित फल प्राप्त होते है। किन्तु जगत मे स्त्री-पुरुष के लिए संतानहीन होने से अधिक कोई दुख व शोक नहीं है। प्रभों, मैं ऐसा व्रत सुनना चाहता हूँ जिसके करने से शुभ लक्षणो से युक्त पुत्र हो भगवान श्रीकृष्ण बोले- महाराज , इस संबंध मे एक प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है। हैहयवंश मे माहिष्मती नगरी में कृतवीर्य नाम का महान राजा हुआ। उसकी शीलधना नाम की एक पटरानी थी। उसने पुत्र प्राप्ति के लिए ब्रम्हवादिनी मैत्रेयी से पूछा। मैत्रेयी ने उसको श्रेष्ठ अनंत व्रत का उपदेश दिया। जिसके अंतर्गत प्रत्येक माह के एक निश्चित नक्षत्र और विधि द्वारा अनंत भगवान का पूजन करना होता है जैसे कि

मार्गशीष मास मे मृगशिरा नक्षत्र मे वाम चरण का पूजन                
पौष मास मे पुष्य नक्षत्र मे भगवान के बाए कटि का पूजन
माघ मास मे मघा नक्षत्र मे भगवान की बायीं भुजा का पूजन
फागुन मास मे फाल्गुनी नक्षत्र मे भगवान के बाए स्कन्ध का पूजन
चैत्र के चित्रा नक्षत्र मे दाहिने कंधे का पूजन
बैसाख मे विशाखा नक्षत्र मे दायी भुजा का पूजन
ज्येष्ठ मे ज्येष्ठा नक्षत्र मे दाहिने कटि का पूजन
आषाढ़ के आषाढ़ा नक्षत्र मे दाहिने पैर का पूजन
श्रावण मास के श्रवण नक्षत्र मे भगवान के दोनों चरणो का पूजन
कार्तिक मास के कृतिका नक्षत्र मे भगवान के सिर का पूजन         
आश्विन मास मे अश्विनी नक्षत्र मे हृदय का पूजन
श्री विष्णु जी की मूर्ति की पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि उपचारो से पूजन करे। अनंत, पुराणवेत्ता, धर्मज्ञ, शांतिप्रिय ब्राह्मण का वस्त्र आदि से पूजन करे।
और अंत मे अनन्त: प्रियताम् कहे
भगवान श्रीक़ृष्ण ने कहा- महाराज इस प्रकार मैत्रेयी से उपदेश प्राप्त कर रानी भक्तिपूर्वक व्रत करने लगी और भगवान श्री अनन्त को संतुष्ट किया। और उन्होने ने एक श्रेष्ठ पुत्र प्रदान किया। पुत्र का जन्म होते ही आकाश निर्मल हो गया। आनन्ददायक वायु बहने लगी। देवगण दुंदुभि बजाने लगे। पुष्प वृष्टि होने लगी। सारे जगत मे मंगल होने लगा। गंधर्व गाने लगे, अप्सरायेँ नृत्य करने लगी। सभी लोगो का मन धर्म मे आसक्त हो गया। राजा कृतवीर्य ने अपने पुत्र का नाम अर्जुन रखा। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण वही अर्जुन, कार्तवीर्य व कार्तवीर्यार्जुन भी कहलाए। आगे चल कर कार्तवीर्यार्जुन ने दत्तात्रेय जी का कठिन तप किया, और वरदान मे एक सहस्र हाथ प्राप्त किए जिसके कारण सहस्रार्जुन कहलाए।
कार्तवीर्यार्जुनों नाम राजाबाहु सहस्रवान, तस्य स्मरणमात्रेण गत नष्टम् च लभ्यते।
आप विचार करे आप कितनी महान विभूति के वंशज है, आज हमने उन्हे भुला कर हम अपनी छोटी मानसिकता के कारण अलग अलग पहचानो के साथ बिखरे पड़े है और अपनी कोई पहचान

नही बना पाये है। अगर हमे अपनी सम्मानजनक पहचान बनानी है तो अपने कुलपुरुष की शरण मे जाकर हैहयवंश को पहचानते हुए हैहयवंशीबनना होगा।
आम लोगो के मान्यताओ के अनुसार यदि कोई भी व्यक्ति महेश्वर सहस्त्रबाहु मदिर और सहस्त्रबाहु महाराज  का दर्शन और अराधना करता है तो उसे कई सुख साधन और सम्पति मे कमी नहीं होता है-

·         घर मे कोई वस्तु गम हों जाय तो दो अगरबत्ती या घी का एक दीपक भगवान श्री राज राजेश्वर जी  सहस्त्रबाहु को श्रधा से पुजा पाठ, आराधाना करे सामान तुरंत ही प्राप्त हों जाएगा|
·         महेश्वर (महिष्मती ) मे जन्मोत्सव कार्तिक शुक्ल सप्तमी केदिन पूरा नगर उपवास करता है| प्रायःसभी वर्ण जाति के लोग इस आस्थावान सुकृत्य के सहभागी होते है| भोर मे नर्मदा नदी मे स्न्नान के बाद कंकर आरती मे हजारों लोग एकत्र होते है|
·         श्री सुदर्शन महादेव कभी भी परास्त नहीं हुए, भगवन शिव ने श्री हरी विष्णु को चक्र दिए थे दुष्ट्र का नाश करने के लिए, श्री सहस्त्रबाहु ने अपने पूर्व जन्म मे भी दुष्ट प्रविरती का ही संहार किया|
·         श्री गणेश कि वन्दना से कार्य निव्र्धीन पूर्ण होते है, श्री लक्ष्मी कि वन्दना से वैभव प्राप्त होता है, श्री सरस्वती कि वन्दना से बुधि प्राप्त होती है, श्री हनुमान कि वन्दन्ना से बल प्राप्त होता है, तो श्री सहस्त्रबाहु कर्त्यावीर हमें गम हुवा धन, वैभव और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है|
·         मध्य प्रदेश मे सन २००४ मे भारतीय जनता पार्टी कि नेता सुश्री उमा भर्ती के मार्गदर्शन मे विजयी होने के उपरांत मुख्यमंत्री बनाए जाने के तुरंत बाद श्री महेश्वर सहस्त्रबाहु मदिर जाकर श्री सहस्त्रबाहु महाराज जी के दर्शन कारण पुजा वन्दना कि और जीत का श्रेया उनको दिया,    तथा समाज के लोगो को इनकी महानता कसे परिचय कराते हुए धन्यवाद भी दिया|
·         श्री सहस्त्रबाहु राज्याभिषेक मे गुरुदेव दत्तात्रेय  ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद स्वरुप श्री विश्वकर्मा द्वारा प्रमाणित स्वर्ण का विमान भेट किया, जो कि सभी से परिपूर्ण आकाश, पृथ्वी, समुद्र आदि मे कुशलता से भ्रमण करता था| गुरुदेव ने सातो समुद्रों एवं “सप्त सरोवर” जल से राज्यभीशेक किया| इसी से प्रेरित होकर महाकुम्भ, महेश्वर सप्त सरोवर जल से प्रति दिन एक माह तक अभिषेक किया|
·         विश्व मे देवस्थानो पर अखंड ज्योति एक या दो के प्रमाण कई स्थानों पर है, ११ ज्योति वे भी अखंड केवल महेश्वर (महाश्मती) श्री राज राजेश्वर देव स्थान के गर्भगृह मे हजारों वर्षों से प्रजवलित है| यंहा लगभग तीन तन घी अपने और अन्य समाज के जो लोग उनसे प्रभावित थे

·         चढाया है| पहले १०-२०० ग्राम घी से हि लोग आराधाना और पुजा पाठ करते थे लेकिन मान्यताए पूर्ण होने और श्रधा होने के नाते अब लोग किलो मे घी चढाते है| यंहा पर चढ्या गया घी कही भी नहीं ले जाया सकता है जो की पाप समझा जाता है ऐसा करने वालो को पाप का भागीरदार होना पडता है|
·         माँ दुर्गा कि एक बार, गणेश जी कि तीन बार, विष्णु जी कि चार बार, श्री शिव जी कि आधी सूर्य के सात बार परिक्रमा होती है, उसी प्रकार ये मान्यता है की श्री सहस्त्रबाहु महाराज की केवल चार बार परिक्रमा करनी चाहिए|

टिप्पणियाँ

  1. चढाया है| पहले १०-२०० ग्राम घी से हि लोग आराधाना और पुजा पाठ करते थे लेकिन मान्यताए पूर्ण होने और श्रधा होने के नाते अब लोग किलो मे घी चढाते है| यंहा पर चढ्या गया घी कही भी नहीं ले जाया सकता है जो की पाप समझा जाता है ऐसा करने वालो को पाप का भागीरदार होना पडता है|
    · माँ दुर्गा कि एक बार, गणेश जी कि तीन बार, विष्णु जी कि चार बार, श्री शिव जी कि आधी सूर्य के सात बार परिक्रमा होती है, उसी प्रकार ये मान्यता है की श्री सहस्त्रबाहु महाराज की केवल चार बार परिक्रमा करनी चाहिए| one laktruth i like aap muje aur bhi vaisi katha please tag meee please ---i

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