हैहयवंश कुलदेव श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु का संछिप्त जीवन परिचय और हमारा परिवेश



 हैहयवंश कुलदेव श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु का संछिप्त जीवन परिचय और हमारा परिवेश
(हैहयवंश सार पुस्तक का प्रथम अंश)
चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है, महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व् शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमे तुवेर्शु सबसे पितृ भक्त पुत्र थे इन्ही के वंश में कृतवीर्य तथा उनके पुत्र  के रूप में कार्त्यवीर अर्जुन उत्पन्न हुए कृतवीर्य के पुत्र होने के नाते ही उन्हें कार्त्यवीर अर्जुन और सस्त्र बांहों (भुजाओ) का बल का आशीर्वाद पाने के कारण सहस्त्राबाहु अर्जुन भी कहा जाता है|
हम साक्ष्य के लिए पुरानो का उलेख्या समाज में कर सकते है, पुराणो में हरिवंश पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, कालिका पुराण, पदम पुराण में हैहयवंश और महाश्मती संबंधी रोचक विवरण पढने को मिल सकती है जिसके अनुसार यदुवंश (भगवान कृष्ण के अवतार ) के समकालीन शाखा ययाति वंश में हैहय वंश का प्रादुर्भाव देखने को मिलता है| हरिवंश पुराण (अध्याय ३८), वायु पुराण (अध्याय २ व् ३२) तथा मत्स्य पुराण (अध्याय४२) में वर्णित है| इसी में कुछ ग्रंथो के अनुसार कंकोतक नाग वंशजो के साथ हैहय राजा कार्त्यवीर अर्जुन या सहस्त्रबाहु ने युद्ध में जीत कर अपने अधिपत्य में स्थापित  करने का उलेख्या मिलता है|
दशरथपुत्र राम, जमादिग्नी पुत्र पुरशराम तथा रामण  जैसे महा योधा के समकालीन थे|  सहस्त्राबाहु अर्जुन के सूर्यवीर की गाथा वायु पुराण महापुराण के अध्याय ९३ और ९४ में विस्तार से दी गयी है| इनके द्वारा रावण को बंदी बनाकर घुअशाल में दाल दिया गया था, यंहा तक की इनके साथ राम-लक्षमण  को भी युद्ध करने में लोहे के चने चबाने पड़े थे और राज्य की सीमा बनाए रखने में सुलह करनी पडी थी| सहस्त्राबाहु अर्जुन का पतन और विनाश अत्यधिक सम्पन्ता, प्रभुत्व, अहंकार तथा बल पूर्वक जमादिग्नी ऋषि के साथ दुर्व्यहार तथा उंके पुत्र पुरशराम से युद्ध के पश्यात हुयी| जिसका वर्णन   हमें पुरशराम- सहस्त्राबाहु महायुद्ध और सैकड़ों वर्षों तक चले संघर्ष के बाद हुआ था, जिसमे पुरशराम द्वारा हैहयवंश के कुल क्षत्रियों का विनाश के प्रण के कारण हम हैहयवंशी क्षत्रियों को अपनी जान- माल की रक्षा और अपने पत्नी-बच्चो का जीवन बचाने के लिए  अपना अस्तित्व छिपना पड़ा था| पुरशराम के भय और ऋषि जमादिग्नी का श्राप ही मूलतः हैहयवंशी क्षत्रियों के अपने मूल स्वरुप को छिपाना त्रेता युग से अबतक एक बड़ा कारण रहा जो आज भी इस आधुनिक युग में हमसे अछूता नहीं है| अत: वर्त्तमान में


अब हमें अपने उस भय को भुलाना होगा और श्राप से मुक्ति पाने के लिए एक जन आन्दोलन के रूप में अपने मूल रूप, पहचान और गरिमामयी अस्तित्व को स्थापित करना होगा| पुरशराम- सहस्त्राबाहु  के घटना के बाद जब हम हैहयवंशीय क्षत्रियों को छिपना पड़ा तो हैहयवंशीय क्षत्रियों ने कई समुदायों और वर्गों में अपने को शामिल कर लिया ताकि उनके मूल रूप को पहचान पुरशराम द्वारा  नहीं  की जा सके|  बहुत सी हैहयवंशीय गर्भवती स्त्रियां और बिधवा क्षत्रिया भी अपना वंश बचाने के लिए विभिन्नरूपों और समुदायों के वर्गों में शामिल हो गयी थी, जोकि पुरशराम द्वारा सहस्त्राबाहु का वध किये जाने के बाद तब तक उनका क्रोध शांत होने के पश्यात भी जारी रहा| जोकि कलयुग के शुरू होने के साथ भी हैहयवंशियो को अपनी पहचान बताने में डर  लगता रहा, और वह जिस समुदाय या वर्ग (जो अनेक  प्रकार के कार्य करते थे ) में शमिल हो गए और उसी के कर्म अनुसार अपनी पहचान छिपा दी, उन्ही समुदाय और वर्गों में अन्य समुदायों की तरह कांस्ययुग में कांस्य का काम करने के कारण कसेरा (आधुनिक रूप कांस्यकार), ताम्रयुग में तांबे का काम करने के कारण तमेरा (आधुनिक रूप ताम्रकार)  इसी प्रकार अन्य प्रान्तों, जगहों में परिवेश अनुसार अनेक प्रकार के संबोधनो से बहुत सारे उप-नाम प्रचलित है, उत्तर पूर्व और मध्य भारत के कई राज्यों में बर्तन बनाने और उसका व्यासाय करने का काम हैहयवंशियो द्वारा प्रचुर मात्रा में किया जाता रहा है, जोकि वास्तव में हैहयवंश क्षत्रिय  वंश/जाति के वंशज है|  कुछ जगहों पर बर्तनों के हस्तशिल्प कला का रूप देने के कारण उसे पिट-पिट या ठक- ठक कर बर्तन का रूप दिए जाने के कारण ठठेरा भी कहा जाता था जोकि मात्र कार्य के करने के कारण प्रयोग किया गया और वह धीरे धीरे एक समुदाय के रूप प्रचलित हो गया| वर्तमान सामजिक परिवेश में यदि किसी द्वारा सामाजिक रूप से पिछडेपन का लाभ प्रगति पाने के लिया जा रहा है तो वह जाति के आधार पर कत्तई नहीं है, इसका लाभ समाज के कुछ लोगो द्वारा अपनो को दूसरी समुदाय के तरह लाभ पाने हेतु शिल्पकला के आधार पर मिला है इसे जाति-धर्म से जोडना उचित नहीं है| सामजिक प्रगति और उन्नति के लिए किये जा रहे प्रयासों में से यह भी एक प्रयास मात्र है| अत: हैहयवंश समाज इस धारणा से कभी निराश ना हो की हमने अपना अस्तित्व और क्षत्रियता खो दी है, या हम भटक रहे है|  सामजिक परिस्थितिया,  खराब समय, बुरा दौर और कष्ट सभी के सामाजिक जीवन में आते है इसे हम एक बुरा दौर और समय मान कर छोडना होगा| आज यह एक सामजिक बीमारी के रूप में हैहयवंश क्षत्रिय समाज का क्षय भर है| हम सभी को सदैव  ही अपनी खोई हुयी पहचान पाने के लिए संघर्षशील रहना होगा|  समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और हम भी उस परिवर्तन के लिए तैयार है| अशिक्षा, अज्ञानता और समय से जाग्रति ना रहने के कारण आज हमारा हैहयवंश क्षत्रिय समाज सामाजिक रूप से काफी पीछे हो गया है| हमारे हैहयवंश क्षत्रिय समाज में धन की


देवी लक्ष्मी की तो शायद उतनी कमी नहीं है जितनी की विद्या की देवी सरस्वती की, क्योकि धन (लक्ष्मी) कभी भी किसी के पास अपने स्वरुप के अनुसार स्थिर नहीं रहती है जबकि विद्या (सरस्वती) जन्हा विद्यामान रहती वह समाज और व्यक्ति सदैव ही सुखी और समपन्न रहता है और हमेशा प्रगति करता है| अत: हैहयवंश क्षत्रिय समाज को सबसे पहले स्वंम को शिक्षित करना होगा अपने परिवार को शिक्षित करना होगा तभी अपना समाज शिक्षित हो सकेगा| जब ज्ञान और शिक्षा हमें प्राप्त होगी तो हम फिर से अपने इतिहास को ग्रंथो, पुरानो, वेदों और अन्य इतिहासकारों द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के माध्यम से खुद को पहचान संकेगे और दूसरों को भी अपनी इतिहास से परिचित करा संकेगे| प्राचीन काल से इस वर्तमान आधुनिक काल तक के  हैहयवंश के प्रमाण और सभी साक्ष्य हमें  ग्रंथो, पुरानो, इतिहास के पुस्तकों के माध्यम से बड़े ही आसानी से प्राप्त हो सकते है बस एकजुट संघर्ष और सहनशीलता पूर्वक कुछ समाज के लोगो को इस शोध में अपना बहुमूल्य योगदान देना होगा| आधुनिक काल में चेदि और कलचुरी वंशो के विवरण हमें प्राचीन इतिहास में पढने को बहुताय  मिल सकते है| जिसे इतिहासकारों ने समय-समय पर अपने पुस्तकों में वर्णित भी किया है| हमारे इतिहास में कलुचुरी वंश का उलेख्या बड़े ही विस्तृत रूप से है, कलचुरी राजवंश ने भारत में एक लाख से भी ज्यादा वर्षों  तक शाशन किया, जिनकी राजधानी रतनपुर (वर्तमान में इलाहाबाद)  जिसे ड़ाहल भी कहते थे | इस राजवंश का मुख्या कार्य क्षेत्र मध्य भारत , बंग प्रदेश, भुज से कश्मीर और दखिन में कलिंग तक फैला था| इस राजवंश के सिक्के, ताम्रपत्र और शिलालेख अदि प्रचुर मात्रा में खुदाई में इतिहासकरो को मिले है जो कि हैहयवंश होने के प्रमाण को दर्शाते है राजस्थान का इतिहास, दखिन भारत के वंश और अनेक पुस्तकों में किये गए खोजो में हैहयवंश क्षत्रिय के राज्य स्थापित होने के प्रमाण मिले है| जिसमे हम हैहयवंशियो क्षत्रियों के परिवार के लोगो को भी प्राचीन इतिहास और इस पर शोध हेतु कार्य करना चाहिए ताकि हम अपनी पहचान को फिर से स्थापित कर सके| कुछ समुदाय अपने को कलचुरीवंश से इस प्रकार जोडते है की वो कलवार एक समुदाय (इनका कार्य भिन्न था) को भी अपने को हैहयवंशी कहते है और सहस्त्राबाहु महाराज की पूजा अर्चना कर उसका लाभ भी उठा रहे है जैसा की श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु सत्संगमें उलेखित किया गया है| पर यह समुदाय अपने को  क्षत्रिय कहने में संकोच करता है, जोकि वास्तव में या तो जम्नादिग्नी ऋषि के श्राप का फल है या फिर पुरसराम – सहस्त्रबाहु के युद्ध का भय है| समूर्ण भारत में इसी प्रकार अन्य समुदाय कार्यों में छिपाने और उसी का रूप लेने के कारण समस्त हैहयवंशीय क्षत्रियों की पहचान करना एक कठिन चुनौती है जिसे समय के साथ धीरे धीरे, जैसे जैसे हम शिक्षित और इतिहास जाने लंगेगे उसे एक करने में सफल हो सकेंगे| हमारा क्षत्रिय हैहयवंश का इतिहास


अन्य क्षत्रियों के वंशो से सर्वथा भिन्न है हम वास्तव में एक उच्च कुल के क्षत्रिय है इसे नहीं भूलना होगा| जिस राज्य वंश का साम्रज्य समूर्ण भारत में शाशन कर चुका हो वह कैसे पिछडा हो सकता है, हां आज के परिवेश में हम सामाजिक रूप से पीछे है इसमे कोई दो राय नहीं है जिसका कारण भी हम सभी ही है जो इस आधुनिक विश्व निर्माण और इकास्वी सदी में पदार्पण के साथ भी अपने घमंड, उदासीनता,  ढोंग, रुढ-वादिता, और संस्कार को बदलने को तैयार नहीं है| हमारे समाज ने अपनी समाज वंश की रक्षा के लिए भूत काल में चाहे जो भी कार्य और रूप अपना लिया हो और अज्ञानता व् भूलवश आज भी वह कार्य कर रहे हो वह सभी हैहयवंशी क्षत्रिय  है इसमे किसी प्रमाण की और आवश्यकता नहीं है| हमें सभी प्रकार के उच्च-नीच, अमीरी-गरीबी, जाति-पाति, कर्म-भेद, छोटा-बड़ा का भेद भाव और सबसे बड़ा अहंकार को भुला कर सभी बिछड़े हैहयवंश समुदाय को एक जुट करना होगा| इसमे जो सबसे बाधा है आज आ रही है वह अपनी पहचान हम कैसे करे अत: हैहयवंश क्षत्रिय समाज के लोगो द्वारा क्षत्रिय धोतक शब्द के स्थान पर कर्म आधारित शब्द का उद्बोधन अपने नाम के पीछे जोडना है क्योकि जिस हैहयवंश का साम्राज्या संपूर्ण भारत में राज्य किया हो उसके वंश के लोग पुरे भारत में ना हो यह संभव ही नहीं है, बस उनके रूप और कार्य अलग-अलग है जिसे हमें पहचानना होगा और धीरे धीरे ही सही पर उनको भी अपने साथ जोडना होगा तभी हमारा हैहयवंश समाज एक बृहद रूप में स्थापित हो सकेगा| सामजिक संगठन के पिछड़े होने का एक बड़ा कारण यह भी है की समाज के जो लोग भी ज्ञान अर्जित कर पढे-लिखे और नौकरी-पेशा पाए और सरकारी –अर्ध सरकारी सहित महतवपूर्ण पदों पर पहुचे उन्होंने कभी भी समाज के उन्नति और अपने वंश के संगठन व् स्वरुप के बारे में नहीं सोचा| जबकि यही वर्ग वास्तव में समाज को संगठित बना सकता था और उन्नति के मार्ग पर ले जा सकता था| आज समय की मांग है की हम सभी मिलकर इन सभी बातो को सब कुछ भुला कर एक नए सिरे से एक नई ऊर्जा के साथ खासकर युवा वर्ग जोडते हए इस ओर कार्य करे, तो निशिचित ही हमारा गौरवशाली हैहयवंश क्षत्रिय समाज एक नई ऊंचाई को छू सकता है|
सहस्त्राबाहु अपने युग के एक मात्र राष्ट्र पुरुष एवं युग पुरुष ही नहीं बल्कि धर्म निष्ठा एवं सौर्यवान थे| उन्होने  साक्षात भगवान के अवतार दतात्रेय जी को अपना गुरु माना और उन्ही से अपनी सारी शिक्षा, दीक्षा तथा धनुर-विद्या का गुण सिखा था, बाद में उनका अपने तप और उपासना द्वारा प्राथर्ना कर अपराजय  होने और सशत्र भुजाओ के बल होने का वरदान प्रप्पत किया था जिसके कारण ही वह सहस्त्रबाहु अर्जुन कहलाते है| उन्होंने सम्पुना पृथ्वी पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था वे परम भक्त और भृगुवंशी ब्राह्मण के यजमान थे| उनके एया दानवीर कोई और दुसरा शशक नहीं था| उन्होंने बहुत


सारे यज्ञ और हवन का आयोजन कर परचुर मात्रा में ब्राह्मणों को धन दान किया तथा प्रजा को हमेशा सुखी रखते थे|
एक अतिशयोक्ति के अनुसार छतीसगढ (पुराना कौसल राज्य ) के राजा शूरवीर, गौ, परहमन धर्रक्षक, महान त्यागी, धर्मात्मा, तांत्रिक एवं मांत्रिक थे| इसी तरह प्रजा भी आद्यात्मिक, तांत्रिक, मांत्रिक और धार्मिक थी| तमरी का पुराण एवं इतिहास स्वंय चैती अमावश्या है| सुर्येंद्र संगम इअनके इतिहास और पाण्डुलिपि में ही रह गया| आज तक हैहयवंशी अपने अभिर्भाव को भूले नहीं है और विशेष अलंकार से अलंकृत है| भले ही तमारि का अपशब्द तमेर हो गया है, भले ही अपने को ताम्रध्वज से तामकार बना डाला परन्तु सच तो यही है की चैती अमावश्य ही तमारि का अभ्भार्व का प्रतीक है| हमारी उदय्ध्वज (झंडा) इसकी प्रत्छय प्रमाण है| समय और परिस्थिति के कारण कोई भी कार्य अपनी जीविका और परिवार के भालन पोषण के लिए किया जाता है, इसी क्रम में बहुत से कार्य अपनी धर्म और संस्कृति से ना होकर भी मजबूरी में अपनाना पडता है, अत: कार्य से जाति/समुदाय  की पहचान नहीं बनायी जा सकती है क्योकि मजबूरी में राजा हरीश चंद ने डोम के यंहा नौकर/सेवा का  कार्य किया था तो उनकी  संताने ने अपनी जाति धर्म नहीं बदल डाली थी| इसी प्रकार विपत्ती आने पर महान राजा कार्त्यवीर अर्जुन (सह्स्त्राबाहु  ) की संतान जीवन यापन हेतु अपनी क्षत्रिय विध्यता और युद्ध में अस्त्र-शस्त्र बनाने की कला का उपयोग धातु विज्ञान के जानकार होने के नाते बर्तन का व्यासाय अपनी रक्षा और बचाव के लिए किया था|, हैहयवंश के बारे में किसी कवि ने कहा है –
इनके पुरखे एक दिन थे, भूपति के शिरमौर|
जिनकी संतान आज है, कही न पाती तौर||

महाराज सहस्त्राबाहु के राज्याभिषेक के शुभ अवसर पर महामुनि श्री दतात्रेय जी ने विश्कर्मा द्वारा प्रणीत स्वर्ण का सुन्दर विमान भेट किया जो कि सर्वसंसधानो उक्त आकाश प्रथ्वी, समुद्र अदि स्वर्त विचारित करने वाला था| सर गुरु दतात्रेय ने सहस्त्राबाहु का राज्याभिषेक सातो समुद्रतो, नदियों के जल से किया महाभारत वायुपुराण, मत्स्यपुराण अदि विशिष्ट पौराणिक ग्रंथो में इनके विषय में उत्कृष्ट उलेख्य पाए जाते है|
राज्याभिषेके भवतो दतात्रेयो महामुनिः|
विश्वकर्मपरित न विनाम हादक ददौ ||
समग्र साधानैउकतम बुवाधिव्योमागाभिम्मं |
ततोभिषेकम कृतवान सप्तवाधिसरिज्जालिः ||




इनके बारे में यह भी प्रचलित है कि भारत के सात चक्रवर्ती राजा में ये एक थे, वह एक महान राजा व् अनेको एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ किये थे| इनकी यग्य वेदिका ठोश सोने की हुआ करती  थी, वे सोने की बेदिया, सामान आचार्यो और ब्राहमणों को दान में भेट किया करते थे|

भरतार्जुन न् माधात भागीरथ युजिस्थिर|
सगारों नहुष श्चैया सत्पते चक्रवतिन||

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