राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु जयन्ती
(हैहयवंस सार पुस्तक का तीसरा अंश)
स्मृति पुराण शास्त्र
के अनुसार कार्तिक शुक्ल पछ के सप्तमी, जो कि हिन्दी माह के
कार्तिक महीने में सातवे दिन पडता है,
दीपावली के ठीक बाद हर वर्ष मनाया जाता है| जोकि हम हैहयवंशियो को दीपोत्सव की ही
तरह महाराज कार्त्यावीर अर्जुन की गरिमामयी इतिहास और उमंग की याद में उनके गुणगान और महिमा को धूम धाम से
जयन्ती के रूप में मनाना चाहिए, इस पर्व से ना हम अपनी पहचान को बढ़ा
संकेगे, बल्कि इनके महिमा का वर्णन कर सुख और अमर के सहभागी बन सकते है| क्योकि
इनका जीवन चरित्र धार्मिक ग्रंथो वेदों और
पुरानो में भगवान विष्णु के अवतार के रूप मानी गयी है| माहिष्मती महाकाब्य के
निम्न श्लोक के अनुसार यह चन्द्रवंश के महाराजा
कार्त्यावीर के पुत्र कार्त्यावीर-अर्जुन – हैहयवंश शाखा के ३६ राजकुलो में
से एक कुल से समबद्ध मानी जाती है| उक्त सभी राजकुलो में – हैहयवंश-कुल के राजवंश
के कुलश्रेष्ट राजा श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबहु अर्जुन समस्त सम-कालीन वंशो में
सर्व श्रेष्ठ, सौर्यवान, परिश्रमी, निर्भीक और प्रजा के प्प्लक के रूप की जाती है|
यह भी धारणा मानी जाती है की इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा १२०० से अधिक वर्षों तक
सफलता पूर्वक शाशन किया था| श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु अर्जुन का जन्म महाराज
हैहय के दसवी पीढ़ी में माता पदमिनी इ गर्भ से हुआ था, राजा कार्त्यावीर के संतान होने के कारण ही इन्हें
कार्त्यावीरअर्जुन और भगवान दतात्रेय के भक्त होने के नाते उनकी तपस्या कर मांगे
गए सस्त्र बाहू भुजाओ के बल के वरदान के
कारन उन्हें सहस्त्राहुअर्जुन भी कहा जता है|
सहस्त्राबाहु जयन्ती पर्व प्रतेक वर्ष कार्तिक शुक्ल पछ के
सप्तमी को स्मृति पुराण (अध्याय १५ श्लोक ३-४) में वर्णित है जिसके अनुसार – महिष्मती-माहात्सय
कर्तिकस्य सिवे पक्षे साप्त्म्या भाववासरे |
श्रावणये निशावाचे
निशीये सुश्रु भेषणे ||
सुश्वे पद्य पत्नी
सकुमार सूर्य सनिभ्म |
सह्स्याकम कर दिव्या सुप्रभ सुसुख श्रेने ||
यमाहुर्वाषु देवांश हैहय
नां फुर्लात्कम।
हैहया नामी
धिपतिरर्जुन :क्षत्रियर्षम।।
जिसका अर्थ है कि महाराजा ययाति के यहाँ वासुदेव के अंश से हैहय
नामक पुत्र हुआ। जिनके वंश में कार्तवीर्यार्जुन क्षत्रिय हुए है। श्री
कार्तवीर्यार्जुन ने दस हजार वर्षो की कठिन तपस्या के पश्चात् श्री भगवान्
दत्तात्रेय से दस जो दस वरदान प्राप्त
किये, वे वरदान निम्न है:-
1-ऐश्वर्य शक्ति
प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
2- दूसरो के मन
की बात जानने का ज्ञान हो।
3- युद्ध में कोई
समानता न कर सके।
4- युद्ध के समय
सस्त्र भुजाएं प्राप्त हो, उनका तनिक भी भार न लगे।
5-पर्वत, आकाश, जल, पृथ्वी और
पाताल में अव्याहत गति हो।
6-मेरी मृत्यु
अधिक श्रेष्ठ के हाथो से हो।
7-कुमार्ग में
प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
8-श्रेष्ठ अतिथि
नी निरंतर प्राप्ति होती रहे।
9-निरंतर दान से
धन न घटे।
10-स्मरण मात्र
से धन का आभाव दूर हो जाये एवं भक्ति बनी रहे।
मांगे गए वरदानो से स्वतः सिद्ध हो जाता
है कि सहस्त्रबाहु अर्जुन अर्थात कार्तवीर्यार्जुन ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार
आचरण करने वाले, शत्रु में मन की बात जान लेने वाले, हमेशा
सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथ सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे
विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने। प्रथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म
लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की
दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्त्रबाहु
को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगो/क्षत्रियो का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्यों से ही क्षुब्ध होकर त्रेतायुग में भगवान् राम जी ने
उनसे अमोघ शक्ति वापस ले ली थी, और उन्हें
तपस्या हेतु बन जाना पड़ा, वे भी अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए। भगवान् श्री
रामचंद्र जी द्वारा अमोघ शक्ति वापस ले लेना ही सिद्ध करता है की, परशुराम जी
सन्मार्ग पर स्वयं नहीं चल रहे
थे। एक समाज
द्वारा दुसरे समाज के लोगो की भावनाओं को कुरेदना तथा भड़काना सभ्य समाज के
प्राणियों, विद्वानों को शोभा नहीं देता है। महाराज
कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय
रहेगे।
इसके
सम्बभंध मे महाभारत(महाभारत अध्ययय २ और २६) मे भी वर्णित है
कर्त्वीयार्जुनो ननं राजा बाहुसस्र्स्वान|
एन सागार्प्यान्ता धनुषा निजिता माहि: ||
जिसका
अर्थ है की कृतवीर्य अर्जुन ने अपने धनुष की शक्ति से सातो समुद्रों से घिरी इस
पृथ्वी के विजय किया, वह कृतवीर्यकर्जुन के नाम से विख्यात हुए|
१८“राज्याभिषेकके भवतो दतात्रेयो महामुनि:
विश्वकर्म्प्रनित त विमान हादक ददो |
सम्ग्रसाधुनेयुक्त भुवाध्व्योमागानिगम
ततातोभिशेक्म कृतवान सप्त्वाधिसृज्ज्ले||
महाराज
कृतवीर्य के राज्याभिषेक के सुबह अवसर पर महामुनि श्री दत्तात्रेय जी ने
विश्वकर्मा द्वारा प्रिनीत स्वर्ण का सुंदर विमान महाराज को भेट किया जो कि
सर्व्सधानो से यक्त आकाश, पाताल, पृथ्वी आदि मे विचरण के लिए संभव थी, श्री गुरु
दत्तात्रेय ने महाराज कृतवीर्यअर्जुन का राज्याभिषेक
सातो
समुद्रों सप्त नदियों के जल से कियामहभारत, वायुपुराण, मतास्य्पुरान, विविध
पौराणिक ग्रंथो आदि मे वर्णित है|
भरतार्जुन माधात भागीरथयुजिस्थर: |
सगरी न्र्हुश्चेय सप्तैने च्क्र्वतिस: ||
श्री
राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु महाराज का जन्म चन्द्रवंश की सर्वश्रेठ वंश महाराज हैहय
की दसवी पीढ़ी मे कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी रविवासरे के दिन श्रवण
नक्षत्र मे प्रात: काल मे हुवा था| जैसा की पहले वर्णित किया गया है की इनका नाम
इनके पिता ने अर्जुन रखा पर पिता के नाम को रोशन करने हेतु इनका नाम
कार्तवीर्यअर्जुन पड़ा| स्मृति पुराण के
महिस्श्य्माती महतां अध्याय १५ खंड ३ के
अनुसार
कर्तिकस्य्सिते पक्षे सप्त्भ्या भानुवासरे
|
श्रवणक्षे निशानाथे निशीचे
सुशुभक्षने ||
इअनके गुरु भगवान
दतात्रेय के आशीर्वाद से इन्हें सहस्त्रबाहु अर्थात हजारों भुजाओं का बल प्राप्त
होने के कारण सहस्त्रबाहु, सहस्त्रार्जुन, हैह्याधिपति, हहय्राज
चक्रवर्तीराजराजेश्वर आदि नामो से भी पुराणों, ग्रंथो मे इनका नाम विख्यात है,
जैसा कि महाभारत अध्याय ४९ खंड ३५, ३६ व् ३७ के
अनुसार
एत्रिम्न्नेव काले तू कृतवीर्यात्म्जो
बाली |
अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियों हैहयधिप:
||
दतात्रेय प्रसादेन राजा बाहुसग्स्र्वान |
चक्रवर्ती महातेजा विप्रनाम धर्म्भिके ||
ददौ स पृथ्वी सँवा सप्त्दीपम स्पर्वत्नाम
|
स्व्बाहोसव्लेनोजौ जिला परम धर्मवित ||
श्री राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु महाराज को
श्रेष्ठ धर्म का ज्ञान उसका रक्षक तथा आदर रखने के कारण उनकी ख्यति सप्त मंडलों
प्रथ्वी, आकाश, पर्वत सभी दिशाओं मे फ़ैली, तथा अपने यासश्वी बहुबल और शश्त्र
विद्याओ मे निपुण होने के कारण आधे से अधिक पृथ्वी पर जीत हाशिल के थी, जिसे बाद
मे अपने इक्षा अनुसार दानवीरता के कारण दान मे दे दी थी, जैसा कि महाभारत अध्याय ४९ खंड ४४
के अनुसार
अर्जुन्स्तु महातेजा बाली नित्य श्मात्क:
|
१९ब्रहान्याश्य
शर्न्यश्च डाटा सुर्विरयम भारत||
वायु पुराण मे भी श्री राजराजेश्वर
सहस्त्रबाहु महाराज को श्रेष्ठ धर्म का ज्ञान रखने वाला प्रजा की रक्षा करने वाला
और उनके यशश्वी होने का उलेख्या है
द्वीपेशु स्प्तेशु शर्वेशु वरखडग सराशानी |
रथी राज्ञासप्यचसे योगी चैव ण दृश्यते ||
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