सामाजिकता और समाज की आवश्यकता

सामाजिकता और समाज की आवश्यकता

जिसको न निजजाती तथा निवेश का अभिमान है, वह नर नहीं, पशु निरा है और मृत्यु सामान है |

किसी राष्ट्र या राज्य अर्थात स्थान  (समाज) की उन्नति उसके धर्म तथा उस स्थान पर धर्म और संस्कार जो उसके पूर्व में सुचरित्र अवलम्बित है| जिस प्रकार एक लंगड़ा/अंधा व्यक्ति लाठी के सहारे सुदूर पहाड़ पर पहुँचने में समर्थ हो जाता है| उसी प्रकार राष्ट्र / राज्य की जातीय तथा समाज धर्म तथा  सदाचार पर उन्नति कर सकती है| वर्तमान में हमारा समाज का अस्तित्व उसके समग्र विकास, समय विकास, क्रांति और जाग्रति का युग है|

आज समाज शब्द की आवश्यकता क्यों महत्वपूर्ण है| इस पर विचार किया जाना आवश्यक है| वर्तमान आधुनिक युग और स्वयं के विकास की भागदौड़ और आगे बढ़ने की होड़ में मानव सामाजिक रूप से बिखरता जा रहा है| आज ना तो व्यक्ति को अपने माता पिता, भाई-बहन और अन्य रिश्तेदारों का कोई उसके जीवन में मूल्य रह गया है नहीं वह इन्हें सजोये रखना चाहता है| मानव जन्म लेने के उपरांत ही एकाकी जीवन शुरू किये जाने के संस्कार से संस्कारित और अभिसिंचित होता है| प्रायः यह पाया जाता है की उसका जन्म हॉस्पिटल में लेता है, जहां सकी देख रेख केवल माँ के सानिध्य में  नर्स या स्टाफ के द्वारा शुरू होता है, तदुपरांत वः माता-पिटा के ही देख रेख में घर पर जीवन शुरू करता है| केवल विशेष अवसरों पर ही वः समाज से जुड़ता है या अपने किसी सगे सम्नाधि का सानिध्य पाटा है| जिसके उपरान्त उसे ३-४ वर्ष की ही अल्प आयु में प्री-स्कूल की शिक्षा सिखाने के लिए भेज या जाता है| और धीरे धीरे वह प्राइमरी स्कूल से लेकर डिग्री कालेज तक की शिक्षा के अध्ययन में ही बिता देता है| शिक्षा के ग्रहण करते ही वह बाल्य अवस्था से युवा अवस्था के तरफ कब पहुच जाता है इसकी जानकारी ना तो उसे स्वयं या माता-पिता  को चल पाती है| शिक्षा के पूर्ण किये जाने तक वह ना तो खुद सगे-सम्बन्धी को जान पाटा है ना तो  फिर समाज या अन्य उसके  स्वभाव और कार्य से परिचित हो पाते है| शिक्षा के ग्रहण करने के तुरंत बाद वह या तो नौकरी मी आ जाता है या फिर अपने व्यवसाय में पूर्ण रूप से लग्न हो जाता है| जिससे बाल से युवा अवस्था के बीच की आयु जिसमें सिखने-जानने और पहचानने की समय उचित होता है वह निकल चुका होता है| नौकरी या व्यवसाय उपरान्त विवाह के लिए कुछ सीमा तक वह समाज या परिवार के सगे सम्बन्धियों से परिचित हो पाता है जो की मात्र एक फॉर्मेलिटी या दिखावा ही रहता है|

शेष समय में वह अपने सामाजिक-धार्मिक कार्यों और परिवार के देख-रेख के साथ मात्र जीविका और पैसा कमाने में ही व्यतीत करता रहता है| इस बिच जब उसे सामाजिक/सांसारिक चीजों का ज्ञान प्राप्त होता है और करनें का प्रयास शुरू करता है तो उसे दूसरो पर ज्यादा निर्भर रहते हुए, हर कार्य के लिए व्यक्ति या साधन की आवश्यकता पड़ती है इसी प्रकार उसकी जीवन  प्रणाली कार्य करते हुए जीवन सपाट हो जाती है| इस प्रकार ना तो वह स्वयं कुछ सामाजिक रूप से जुड़ पाटा है ना ही समाज को उसकी आवश्यकता रहती है< तो फिर समाज का निर्माण और संचालन करने का दायित्व कौन निभाएगा|  अतः आज एक अनुत्तर प्रश्न समाज के सम्मुख है|
मनुष्य के रूप में जन्म से मरण के बिच की प्रणाली को गति और सामंजस्य विकसित किये जाने के लिए एक प्रणाली का होना अति आवश्यक होता है| मानव के रूप में जीवन यापन को चलने के लिए एक समाज की आवश्यकता हर काल में रही है| बिना समाज के मनुष्य का जीवन एक जानवर और पशु पक्षी की तरह नीरस बन जाती है|
मनुष्य एक सजीव प्राणी है, जिसमें सोचने, समझाने और विश्लेषण किये जान एके गुण विद्यमान होते है, यह एक प्राक्रतिक प्रवृति भी है| जिसके कारण एक सजीव जीव के रूप में वह अन्य प्राणियों से भिन्न समझा जाता है|
मनुष्य के जन्म लेने के उपरांत उसके पृथ्वी पर आने के सामूहिक ख़ुशी, जन्मोत्सव के रूप में विभिन्न, सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाये जाने का प्रचालन समाज में है|

मनुष्य के बाल जीवन के उपरांत उसके समस्त धार्मिक और संस्कारित कार्य में यागोपावती जनेऊ, आदि प्रकार विभिन्न संस्कार समय अनुसार भी स्पंदित किये जाते है, जिसमें भी समाज का महत्व पूर्ण योगदान होता है| इस प्रकार उसके युवा होने के उपरान्त शादी-विवाह के अवसरों में समाज का ई योगदान सरो परी है जिसमें उसका वैवाहिक सम्बन्ध का कार्य सम्पन्न किये जाते है|

विवाह के उपरान्त यह मानव प्रणाली पुनः अपने अगले पीढी के कार्य भी बिना समाज के पूर्ण नहीं कर सकता है|
मानव की अंतिम समय मरने पर भी समाज की आवश्यकता उसके समस्त कर्मो में होती है| इस प्रकार यह मानव प्रणाली लगातार चलाती रहती है, उस एक सामाजिक प्रणाली के अन्तर्गत ही संपन्न होते है|
हम मनुष्य के रूप में जीवन पाने के उपरांत जीवन के शुख-दुःख को बिना सहभागिता के पूर्ण नहीं कर सकते है, जिसकी शुरुवात परिवार, सगे – सम्बन्धी और अंत में समाज के रूप में होते है| बिना समाज के इन शुख और दुःख के मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है|

अत: जीवन यापन का मूल्य बिना समाज के पूर्ण नहीं हो सकता है| एक मानव के रूप हम जीवन के सामाजिक मूल्यों को समझना पडेगा| हम जिस प्रकार जन्म के प्राप्ति उपरांत माता-पिटा के रूप प्रथम समाज का एहसास करता है, फिर एक परिवार के रूप में उसे समाज के अन्य सदस्यों का सम्मिलित होते है, फिर सगे-सम्बन्धी, रिश्तेदार और एक वृहद समाज का रूप स्थापित होता है| इस प्रकार जन्म के उपरांत एक बृहद सामाजिक स्वरूप के रूप में हम अन्य परिवार के समर्पण होते है, जो एक  दूसरे सहयोग और प्यार का कारण बनता है|
सामाजिक स्वरूप में हम अपने अच्छे/बुरे कर्म के कारन जाने और पहचाने जाते है|

हम बिना समाज के दुनिया में नहीं रह सकते है| समाज की अति आवश्यकता आज नहीं तो कल नहीं तो कभी पर पड़ती जरुर है| इसकी अवस्था और समय हम जरूरत की स्थिति में आशय ही महशुश कर सकते है| जब हमारे आस-पास हमारे सुख-दुःख और हमें जानने वाला कोई नहीं दिखता है तो हम समाज के अस्वाद से ग्रस्त रहते हुए ब्यातित होते है| जिसका परिणाम हमारे परिवार और स्वास्थ पर भी पड़ता है|

समाज में अपनो का होना जरूरी है, हम दूसरे वंश/ संस्कार के लोगों में आसानी से सीधे से सम्मिलित नहीं हो सकते है और सामाजिक असंतुलन और स्वार्थ के कारण अन्य समाज के बगैर जीना सुगम नहीं होता है|
यही कारण है समाज में अपने वातावरण वंश परम्परा और संस्कार धर्म के अनुरूप लोगों के संगठन के रूप में हम समाज की स्थापना करते है| समाज की आवश्यकता सभी को होती है इससे सभी का स्वार्थ और सहयोग का होना निश्चित है| व्यक्ति / परिवार की स्थिति सदैव सभी के लिए सामान नहीं होती है| हमें जीवन में सुख दुख के क्षण का सामना करना ही होता हा| जिसके बिना जीवन चल नहीं सकती है| यह वही एक क्षण होता है जब हम दुको के एक दूसरे से बाँट सकते है और सुख की खुशी में दूसरों का सहभागी होते है।

प्रकृति के रचना में ईश्वर द्वारा मानव जीवन पाना और जीवन जीना हर मनुष्य के लिए सौभाग्य  की बात है, एक मनुष्य के रूप में ईश्वर ने हमें सोच और विचार के रूप में समाज में रहने का अवसर प्राप्त है| हम इसी सोच विचार के नाते अच्छे और बुरे का ज्ञान रखते है और हम एक संस्था के रूप में एक जगह स्थापित है वह जगह एक देश/प्रदेश/कस्बा या कोई और नाम से स्थान हों सकते है, जो मानव के सोच और विचार के विविधता के कारण जाना जा सकता है ठीक उसी स्थान और संस्था की तरह एक सोच-विचार और संस्कार के लोग जब एक साथ रहते है तो समाज के विभाजन के तरह उसे अनेक नाम और रूप दे देते है जिसमें धर्म, कर्म और जाति की मान्यताएँ ज्ञानी और धार्मिक सांसारिक ज्ञान रखने वालों के द्वारा बनायी गयी| हम इस पर ज्यादा विचार ना करते हुए यह कहना चाहते है की जो भी धार्मिक और संस्कारिक मान्यता ये हमें विरासत में मिली है उन्हें एक समाज के रूप में स्वीकार करते हुए एक सामाजिक प्राणी के माते हम अपने और पाने परिवार के भलन पोषण के साथ समाज का भी सहयोग करे| क्योंकि मानव जीवन के सफर में जीवन से मरण के बीच बहुत से कार्य करने रहते है जिसमे अपने साथ दूसरों के भी सहयोग की आवश्यकता पडती है जिसे हम सामाजिक बंधन या सामाजिकता का नाम देते है| समाज का अभिप्राय केवल एक प्राणी से नहीं हों सकता है समाज लोगों का समूह है जिसमे विभीन्न विचार और योग्यता के लोग एक साथ एकत्र होकर रहते है जिसमें एक दूसरे के सुख व् दुःख के सहभागी बनते है और जीवन समाज में इन्ही खट्टी और मीठे अनुभव और समय के बिच चलता रहता है| हर प्राणी को एक दूसरे के जरुरत रहती है जिस प्रकार आप एक पैर से ठीक से चल नहीं सकते है ठीक उसी प्रकार से सामाजिक आयोजन ना तो अकेले किये जा सकते है नहीं इसकी कोई मान्यता हों सकती है| इन्हीं कुछ पहलुओं के कारण हर मानव को समाज की आवश्यकता पडती है| जिस प्रकार हम एक परिवार चलाने के लिए हम कार्य करते है ठीक उसी प्रकार समाज को भी चलने की आवश्यकता होती है|

सामाजिक कार्य एक निरन्तर चलाने वाली गतिशील प्रक्रिया है जिसमें हम मानव द्वारा तन-मन धन के साथ लगातार कार्य करते रहने की जरूरत रहती है, सामाजिक प्रक्रिया में लोग जुडते है और बिछुडते रहते है पर समाज चलता रहता है| सामाजिक कार्य में लोग समय समय पर जुडते रहते है और अपने ज्ञान और सामर्थ्य अनुसार समाज को एक नयी गति और दिशा देते है| समय और परिस्थिति समाज के लिए कभी बहुत अच्छी और कभी मंद पड सकती है पर फिर भी समाज चलता ही रहता है| आज समय की मांग है, खासकर अपने स्वजातीय के समाज की हम सभी मिलकर अपने गौरवशाली समाज वंश परम्परा को पुन: से जीवित करें और एक सुनहरे भविष्य के ओर ले जाय| lलेखक का यह  व्यक्तिगत यह मानना है की बिना समाज के हर मानव का जीवन अधूरा है अन्य सामाजिक प्राणी के लोगो के तरह हमारा भी सामाजिक संगठन तो है पर हम संगठित नहीं है इसके कई कारण हों सकते है पर हम उन कारणों का निराकरण करने का प्रयास करे नाकि उमसे किसी कमी ढूढने की| हमारा समाज एक गौरवशाली वंश परम्परा का धोतक रहा है इसमे अब कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए काल समय और परिस्थिति के कारण अपना समाज सामाजिक मूल्यों और स्थापना के रूप में अन्य समाज से सबसे निम्न स्थान पर था।। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए की समय और परिस्थिति सभी समाज के साथ सभी मनुष्य में सामान रहती है हमारा कल यदि बहुत अच्छा नहीं था तो इसमें कोई संदेह नहीं की हमारा भविष्य अत्यन्त ही सुन्दर और सुदृढ़ होगा, परन्तु इसके लिए हमें अपने वर्तमान को संभालना होगा और सँवारना होगा| जिन कमियों के कारण हम अन्य समाज से पीछे है उनमें सबसे बड़ी कमी समाज में शिक्षा है|

दूसरी कमी सामाजिक रुद्वादिता और सामाजिक अज्ञानता इसके साथ सामाजिक अभिमान इन सभी से ऊपर उठकर हमें अपने समाज को शिक्षित करने, रुद्वादिता को समाप्त करने और अभिमान के जगह स्वाभिमान के लिए समाज में कार्य करने होंगे| सामाजिक भाव जगाने के लिए हम एक दूसरे से जुड़े एक दूसरे की मदद करे और सबसे बड़ी जो बात है यह कार्य हम निःस्वार्थ और समर्पण के भाव से ही करे, आप यदि किसी की मदद या सहयोग करते है तो यह निश्चित मानिये की आप का भी मदद करने के लिए कोई ना कोई खडा है यह हों सकता है की समय और परिस्थिति आप के साथ ना हों कि आप की जरूरत पडने पर आप का सहयोग कोई ना कर सका यह दुर्भाग्य की बात कुछ के साथ हों सकती है| सामाजिक प्रक्रिया के इस कार्य में कुछ अच्छे कुछ बुरे लोग मिलेंगे जन्हा कुछ पल के लिए रुकावट आ सकती है पर अच्छे लोगो की संख्या सदैव ही बड़ी रहती है| हम समाज को संगठन के रूप में संगठित और विकसित करने में जो भी जितना सहयोग दे सकता है देना चाहिए इसमे कोई भी बाध्यता नहीं होनी चाहिए, परन्तु जब तक आप कुछ समाज को नहीं दंगे और उससे नहीं पूर्ण करंगे तबतक आप समाज से कुछ पाने की उम्मीद कैसे कर सकते है| इसका आशय मात्र आप समाज से जुड़े यदि एक सच्चे सिपाही के रूप में आप समाज से जुडते है तो यह स्वाभविक है की आप कुछ ना कुछ समाज को सहयोग देंगे| समाज के सफल संचालन के लिए एक दूसरे से संवाद स्थापित करना और परस्पर संपर्क के साथ बातों को शेयर करना अतिआवश्यक है क्योकि जैसे ही सामाजिक गैप दूरी बनेगी वह यथार्थ से आगे बढ़कर उतनी ही असमंजस, असहजता और संदेह पैदा करेंगे और आप उस समाज से निष्क्रियता के ओर जाने लगेंगे| अत: हम सभी का यह कर्तव्य बनता है की अपने स्वजातीय का समाज को संगठित और विकसित कर उसे विविधताओं और सहयोग के कार्यों से भर दे जिसका लाभ अपने समाज के वांक्षित और जरूरत मंद लोगों को मिल सके और अपना समाज एक स्वाभिमान के लिए जाना और पहचाना जाय|

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