हैहयवंश का स्वाभिमान



हैहयवंश का स्वाभिमान
कभी  – कभी अच्छाईयों और सत्यवादिता के साथ न्याय  रूपता व् सामजिक हठ धर्मिता भी विकास में बाधा बन जाते है| अब हम इसे विधि का विधान या फिर सामजिक युग परिवर्तन ! संसार जो भी प्राणी या प्राणी के रूप स्वंम  भगवान ने ही अवतार लिया सभी का निश्चित समय और दिन है कि उसे मिटना या संसार से जाना ही है क्योकि जो आया है उसे जाना है जो बना या बनाया गया है उसे मिटना या खत्म होना है जो आज है कल नहीं था और जो आज है भी उसे कल नहीं रहना है| परन्तु यह भी सत्य है की कुछ मूल चीजे होती है जिसका केवल स्वरुप ही बदलता है उसके कार्य और निरंतरता  बनी रहती है जैसे कि जल, हवा और जीवन जिसे हम सर्वशक्तिमान कहते है| जिस प्रकार सत्य को हम नहीं मिटा सकते है चाहे उसे कितना भी छिपाया या झुठलाया जाय पर एक ना एक दिन सच सामने आ जाती ह| समय परिवर्तनसील है इसी कारण  युग परिवर्तन हुआ और सतयुगस से  कलयुग तक का युग निर्माण बना| परिवर्तन संसार का नियम है, इसी कारण ऋतुये बनी और उसी अनुसार मौसम का परिवर्तन होता है और हमें प्राकृतिक रूप में सभी चीजे प्राप्त है| समय का चक्र सभी के जीवन काल में आता है चाहे वह सामाजिक प्राणी हो या सामाजिक संरचना और उसे जीवन काल के अच्छें बुरे, सुख दुःख, अमीरी गरीबी सहित ऐसे बहुत से चीजों का जीवन काल में सदैव बना रहता है| आज हैहयवंश समाज भी उसी जीवन काल के परिवर्तन के दौर से गुजरते हुए अपने अस्तितत्त्व और स्वाभिमान के लिए संघर्षरत है| अब यदि हम आस्तिक है, धर्म-कर्म को मानते है, पूजा – पाठ में विश्वाश रखते है, सत्याकर्मो के संस्कार को मानते है तो हमें अपने सामाजिक स्वाभिमान के बारे में सोचने और उसे पुन: स्थापित करने के लिए अवश्य ही प्रयास करना चाहिए| जैसा की सभी धार्मिक ग्रंथो, पुरानो और उप-निषदो से ज्ञात होता है कि हैहयवंश का साम्रज्य था और हम उसी के वंसज है और हम क्षत्रिय थे तो फिर इसमे सोचने और मानने की जरुरत नहीं है| हमारे वंश का श्रय एक अभिमान जो हठ धर्मिता के कारण वंश के संस्थापक महाराज सस्त्राबहु अर्जुन द्वारा परशुरामजी के साथ युद्ध के बाद संघर्ष और अभिशाप के द्वारा हुआ|  परशुराम - सहस्त्रबाहु संगर्ष का वरन हर धार्मिक ग्रंथो और पुरानो में वर्णित है अत: हम इसे सच मान लेते है और इसे हम झूठला भी नहीं सकते है परन्तु यह मात्र अपवाद है जो हर जगह होती है आप या हम किसी ने ना तो इस घटना को देखा है ना कौई प्रमाण दे सकता है यह केवल धार्मिक मान्यता है यदि हम धर्म ओ मानते है अब यह वरन विभिन्न साहित्यकारों रचनाकारों द्वारा लिखी और दर्शित और वर्णित  की गयी है जिसे जितना ज्ञान और सामर्थ्य था लिखा है अब हम और आप उसी के आधार पर उसे मानते है या अही यह हमरे आप की ज्ञान और मान्यता है|
जिस धारणा से घटना क्रम का वरन अधिकाँश कथाकारों, साहित्यकारों, लेखकों द्वारा उधित की गयी है उसे सही मानना चाहिए क्योकि युद्ध का वरन लगभग सभी धार्मिक-ग्रंथो में मिलता है जो हजारों वर्षों तक चला इसमे सत्यता लगती है क्योकि दोनों ही प्रतापी और महान राजा थे और दोनों ही महान तपस्वी थे. जिस कारण सह्स्त्राबहु अर्जुन का प्राण गया वह भी वरदान के अनरूप ही था की मेरी म्रत्यु मुझसे भी श्रेष्ठ क्षत्रिय के हाथ हो के कारण ही हुआ था| अब कथाकारों का यह लिखना की धरती को २१ बार क्षत्रियों का विनाश के साथ समाप्त करना था सत्य प्रतीत नहीं होता| यह शायद एक कहावत रही हो के प्रथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने का कार्य परशुरामजी द्वारा किया गया जो सामाजिक प्रमाण सप्त-कुंद के रूप देखी जाती है, कोई वास्तविक प्रमाण या क्षाक्य नहीं, पर यह संभव है की इतने लंबे समय तक युद्ध के कारण हर – जीत तो किसिस ना किसी की हुयी अत: हैहयवंश क्षत्रियों के युद्ध में घनघोर छति  और विनाश के कारण अपने रक्षा के लिए सामाजिक परिवर्तन कर अपने प्राणों की रक्षा किया, जिसमे न सिर्फ अपनी क्षत्रिय्ता को छुपाया परन्तु अपने को असहाय पाकर अपने कर्म और सनास्कार भी बदल कर दूसरों के शरण में जाकर अपनी रक्षा की होगी| और इस कारण स्वरुप बदलने के से  हम अपने पहचान व् क्षत्रिय्ता  को भूल गए| क्योकि यह सच है की सामाजिक प्राणी अपनी जान की रक्षा के लिए कोइ  ना कोइ  उपाय निकाल ही लेता है| पर यह सभी अपवाद मात्र है क्योकि क्षत्रिय तो सभी युग में थे चाहे वह सतयुग हो द्वापद या फिर कलयुग - समय के परिवर्तन के कारण हम और आप अपने को छिपाते - छिपाते गए और अपनी पहचान और क्षत्रिय्ता को भूल कर आज इस स्थिति में है| हम जिस कारण से आज वर्तमान में अपनी स्थिति पाते है हमें उस पर विचार कर नए सिरे से अपनी खोयी हुयी क्षत्रिय्ता और संस्कार को स्थापित करना होगा| जो भी घटना क्रम या कारण हमारे पीछे रही हो जिसे पुरानो, ग्रंथो और उपनिषदों के साथ साथ विद्यमान साहित्यकारों द्वारा लिखा गया वह मात्र कल्पना ही है जिसे जितना ज्ञान और सामर्थ्य था उसी अनुसार उस कथा का वरण किया है क्योकि यह सत्य या आँखों देखी घटना किसी भी लेखक के नहीं थी| अत: हम इन सभी घटनाओ और कथा को पूर्ण नहीं मान सकते हैं|  
अब आज हैहयवंश क्षत्रिय समाज के निर्माण का है, तो यह स्वाभाविक है की हम कैसे यह मान ले की हम सभी ही हैहयवंश के वंशज और महाराज कर्त्यावीर अर्जुन के संतान है| हमें अपने पूर्वजो द्वारा यह शब्द विरासत में मिला की हम हैहयवंश कुल के क्षत्रिय है इसका कोई साक्ष्य या प्रमाण नहीं दिया जा सकता है परन्तु यह भी सच है की हमारे संस्कार और हमारी धार्मिक मान्यता ही हमें अपने  वंश परम्परा को जीवित रखने में सहायक होती है और पूर्वजो के बनाए गए संस्कारो और धर्म के आधार पर पीढिया चलती है| मनुष्य जन्म से कभी ही किसी जाति या धर्म का नहीं होता है, वह जिस परिवार या समाज में जन्म लेता है वही उसके धर्म, कर्म और संस्कार के साथ वंश के रूप जाति बन जाती है| समाज में जो वंश या जाति अपने कर्मो, संस्कारों और धार्मिक कार्यो से एक सफल सामाजिक जीवन स्थापित करता है वह समाज में उच्च वर्ग कहलाता है, इसके प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है आप यदि धार्मिक और सांसारिक रूप से विद्यावान होते हुए धर्म, ज्ञान केलिए कार्य कर रहे हो तो आप एक ब्राह्मण के वंश के हो या आप समझ सकते हो की हम उच्च कुल के वंश या प्राणी है, आप ज्ञान के साथ रक्षा और युद्ध कर सकते हो तो भी क्षत्रिय कुल के तुल्य और उच्च वर्ग के प्राणी हो इसी प्रकार अन्य्हा सनास्कार कर्मो के कारण ही वर्ग और समाज का निर्माण होता रहा है| सामाजिक संरचना में जाति / वर्ग का भेद भी समाज की ही देन है इसका वर्गीकरण हम समाज के लोगो के द्वारा ही किया गया है| आज समाज में हजारों वर्ग और जातिया बन गयी है जो संभवत: अपने कुछ विशिस्ठ गुण या कार्य के आधार पर अपनी एक अलग पहचान दिखाने के लिए है| जिस प्रकार हर मनुष्य एक सामान होते हुए भी वो अपने को अपने कुछ गुणों और कर्मो के कारण अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहता है या स्थापित करना चाहता है ठीक उसी प्रकार समाज का संगठन भी अपने पहचान और अस्तित्व को स्थापित करना चाहता है| इसी कादी में हम सब भी अपने पूर्वजो द्वारा दी गयी जानकारी और धर्म, कर्म तथा संस्कार को मानते हते अपने को हैहयवंशीय क्षत्रिय समाज के स्थापना के लिए प्रयास कर रहे है| इसमे कोई भी बुराई नहीं है| परन्तु इस निर्माण में हमें कुछ बातो का ध्यान अवश्य रखना चाहिए, कि हम सभी के पास हैहयवंश या महाराज सह्स्त्राबहु अर्जुन से जुडी जो भी जानकारी है और जिन जानकारी से हमें ओअने समाज के विकास को जोडने में सहाहायक बन रही है उस पर विवाद या बिना तथ्य के बहस ना करे| यह सत्य है की किसी के पास कोई साक्ष्य या प्रमाण या जवित कथा नहीं है सभी समाज के लोग जो अपने को ज्ञानी मानते है मात्र पूर्व में लिखे गए ग्रंथो द्वारा ही यह कह सकते है की हैहयवंश क्या है| हमें जिस बात पर सहमति नहीं बनती है उस पर हम कोई ऐसा अपवाद या प्रचार-प्रसार ना करे जो समाज के संगठित होने में या जोडने में रुकावट बने| यह कोई आवश्यक नहीं की सभी का ज्ञान एक जैसा हो और सभी के विचार या सोच एक जैसी हो हम तथ्यों के आधार पर आपस में विचार विमर्श कर किसी एक बात पर सहमत बना सकते है पर  इस अपवाद कर तोडने का काम न करे| हम सभी जो अपने को पूर्ण रूप से हैहयवंश में वंसज मानते है यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हम एक उच्च कुल के सामाजिक प्राणी है तो हमें फिर अपने संस्कारों, धर्म, और कर्मो के अनुसार ही ब्यवहार करना चाहिए जिससे एक शशक्त समाज की स्थापना हो सके| हमारे धर्म, कर्म और संस्कार ही हमाँरी स्वाभिमान है अत: इसके गुणों के अनुसार हमें अपने समस्त स्वजती बन्धुवो और सामाज के  लोगो एक साथ लाने के लिए क्षत्रिय्ता के अनुसार उनकी रक्षा कर उन सभी को एक करना चाहिए| धार्मिक ज्ञान के साथ साथ उनके साथ मिलकर शिक्षा का प्रचार प्रसार करे उनकी सहायता करे और एक शशक्त संवाद स्थापित करते हुए हैहयवंश समाज के निर्माण में अपनी सामर्थ्य अनुसार भूमिका का निर्वहन करे| हैहयवंश के समाजिक निर्माण में भी परिवर्तन लाने का समय आ चुका है अब हमें इससे पीछे नहीं हटना है और अपनी खोयी हुयी पहचान और स्वाभिमान को पुन: से स्थापित करना है|

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