श्रीमद भागवत अनुसार पौराणिक हैहय कथा

श्रीमद भागवत अनुसार पौराणिक हैहय कथा

( वर्तमान हैहयवंशीय क्षत्रिय समाज की वंश-कहानी ) 
श्रीमद भागवत पुराण, उपनिषदों  औए वेदों के मान्यता अनुसार सर्व-विश्व शक्तिमान परमपिता परमेश्वर  द्वारा  ब्रह्मांड  उद्भव के पूर्व पराभव शक्ति माया (लक्ष्मी) की उत्पति माना जाता है| तद्पश्यात प्रथम आकाश,(गगन) द्रितीय हवा (पवन), अग्नि, जल और प्रथ्वी का उद्भव की मान्यता है| माया जो की अदृश्य शक्ति के रूप में थी का बृहद रूप से विस्तार और और दिन पार्टी दिन बढ़ाने/विस्तार का निरंतरता रही|  धार्मिक/बौधिक मान्यताओ के सन्दर्भ में भी वैज्ञानिको ने भी यह कहा है कि प्रथ्वी और सूर्य आग का गोला के भाग है जिसका कारण यह भी माना जा सकता है के प्रथ्वी जल के समीप होने के कारण धीरे धीरे ठंडी हो गयी और आकाश जल से दूर रहने के कारण आज भी गर्म और जवालित है जिसके प्रकाश से अन्य सभी धरा चमकते और  रोशनी पा रहे है| प्रथ्वी पर माया (अचरज और अजूबा ) अपने अलौकिक शक्ति तथा माया जाल को बढाने के लिये अनेक प्रकार के प्राणियों, जीवो, जन्तुओ और फल, फोल और वृछ आदि की उतपति की| जिससे उसके माया-जाल में लोग रचते-बसते  जाय और उसकी मोह रूपी शक्ति एक दूसरे को बाधे रखे| माया दवारा उद्भभाव में सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा और ज्ञान अज्ञान के साथ ही विरोधा भाव का जन्म हुवा जिससे असंतुलन ना बने| एक तरफ जहा देव और देवियों विद्वानों का परिरूप मिला तो दूसरे तरफ दानवों और राक्षसी प्रविर्ती के लोगो को भी जन्म मिला,यही प्रक्रिया जंतु, और अन्य जीवो के लिए बनी की वह प्रक्रिती के संतुलन के लिए एक दूसरे के भाजक बने जो स्वंम  की रक्षा नहीं कर सकते थे| इसी प्रकार फल-फोल और वृक्ष भी अपना क्षमता अनुसार एक दूसरे के पूरक बनते रहे| इस प्रकार देव-दानवों के ज्ञान और अभिमान ने माया को अपनी ओर लाने के लिए वैम्न्यस्ता को इतना बढ़ा दिया की असंतुलन की स्थिति होने लगी| इस असंतुलन को खत्म करने के लिए और सभी की शक्ति बुद्धि को प्रकृति के सकरात्मक प्रयोग करने के लिए समुद्र मंथन का प्रस्ताव दोनों पक्षों ने किया| समुद्र मंथन के लिए सुमेर पर्वत की धुरी (मथानी) और बासुकी सर्प को रस्सी के रूप में प्रयोग हुवा परन्तु मथानी को ठोस जगह समुद्र के बीच नी मिलने के कारण वह धीरे धीरे नीचे धसने लगी जिससे मंथन के कार्य में बाधा आ गयी| तब देवो के पालक भगवान हरी विष्णु की दोनों वर्गों ने अराधना और प्रार्थना की| जगत पालक श्री हरी विष्णु ने दोनों के प्रार्थना पर पहल करते हुए दसावतार रूप में पहले मत्स्य अवतार उसके बाद कुरमा कछुवा का रूप में प्रकट अवतरित हुए| कथाकारों के अनुसार इसी कछुवा की पीठ को आधार बनाते हुए समुद्र मंथन का कार्य हुवा और उससे चौदह रत्न निकले जिसमे प्रथम रत्न नारी के रूप में लक्ष्मी जी एवं अलौकिक अप्सरा , परम  दिव्या नर चंद्रमा एवं धनवंतरी परम दिव्या परम पशु रत्न एरावत (हाथी) उचेस्वर अश्व एवं कामधेनु गाय परम द्रव्य रत्न अमृत  अमृत-सुरा एवं गरल द्रव्य (विष), परम दिव्या वस्तुए धनुष, कौस्तुभ्नी एवं शंख, परम अनंत वृछ कल्पतरु है|
मंथन के पश्च्यात प्राप्त रत्नों को परम पिता  पालक विष्णु द्वारा वितरण कार्य और उपयोग के अनुसार सृष्टी के निर्माण व् संचालन हेयु किया गया, जिसमे श्री लक्ष्मी जी को कौस्तुभ मणि एवं शंख भेट किया गया, लोक कल्याण की दृष्टी से चंद्रमा जी को आकाश में और धन्वन्तरी  को प्रथ्वी लोक में भेज दिया गया| देवराज इन्द्र की सभा के एश्वर्या के लिए अप्सरा और एरावत हाथी को दे दिया गया| गरल द्रव्य (विष)  को कोई ग्रहण नहीं करना चाहता था उसे भगवान भोले शंकर ने ग्रहण कर लिया| धनुष अर्पण किया गया धनुष सूर्यदेव को रथ के वाहन के लिए उच्चेश्र्वा अश्व (हैहय) को प्रदान किया गया| परम अनंत कल्पतरु को स्वर्ग के बाघ में स्थान दे दिया गया| कामधेनु को उचित पालन पोषण सेवा सुविधा के दृष्टी से ऋषी जम्दाग्नी  ऋषि एवं धर्मचारनी  रेणुका के आश्रम को अर्पित किया गया| बलिष्ठ सौष्ठ्वाशाली द्र्व्सुरा का पान करने के लिए देव गण राजी हो गए और सुरा पान देव गण सुर कह्लाये और दानव जिन्होंने सुरा पान नहीं किया असुर कहलाये क्योकि अंतिम परम पुनीत अमर्दयानी अमृत पान करने की इच्क्षा और लालच के कारण दानव प्रतीक्षा करते रहे परन्तु देवगण यह नहीं चाहते थे अत: अमृत के लिए दोनों पछो में विवाद होने लगा| इस बीच इन्द्र पुत्र जयंत अमृत कुम्भ लेकर भागने लगा, दानव भी उसके पीछे भागने लगे हिमालय के नीचे के भाग जिसे भरतखंड जाना जाता था महा प्रयतन के बाद जलमग्नता से सबसे ऊपर आया अत: इसे परम पवित्र भूखंड माना जता है| इसी भू-भाग में जयंत अमृत कुम्भ लेकर भागता रहा और इस दौरान पवित्र नदियों के किनारे बसे चार महा-खंड जो नगर के रूप में हरिद्वार, प्रयागराज,, उज्जैन एवं नाशिक में अमृत कुम्भ के रखा था जिससे अमृत यंहा छलक गए और नहा के जलश्रोतो में विलीन हो गए| सतयुग में यंही पर कुम्भ का स्नान इस अमृत के रूप पाने के लिए लगता है|
जयंत अंत में अमृत कुम्भ लेकर देव – दानवों के बीच पुन: उपस्थित हुवा परन्तु अमृत कौन बाते इस पर एक राय नहीं बन सकी, इस अवसर पर भगवान विष्णु मोहनी का रूप धारण कर आये जिससे उनके इस मोहक रूप के देखकर दानव मोहित होकर सभी एक कतार में बैठकर अमृत पान के लिए राजी हो गए| मोहनी द्वारा अमृत पान के वितरण हेतु कतार से अलग अलग एक तरफ देव और दूसरी तरफ दानव को बैठने को कहने पर सभी अपने अपने बारी के इंतज़ार करने लगे, मोहनी ने देव से अमृत पान करना सुरु किया तब तक दानव मोहनी के रूप को निहारने के कारण अपनी प्रतीक्षा बाद में आने का इंतज़ार करने लगे क्योकि मोहनी के असली रूप को दानव पहचान नहीं पाए थे, परन्तु भगवान शिव ने मोहनी को पहचान लिया और भगवान विष्णु से अपने असली रूप में दर्शन करने के लिए अनुरोध करने पर शिव- मोहनी पर आशक्त हो गए जिससे मानस सूत भगवान अय्यपन का जन्म हुवा, जिनका निवास स्वरीमाला  पर्वत पर बने मंदिर में बना| मोहनी ने देवताओं को पहले अमृत बाटना शुरू किया तब दानवों में एक दानव राहू के शक होने पर की ऐसे तो अमृत दानवों तक नहीं पहुच पायेगा वह चुपके से देवो के कतार में सूर्य और चंद्रमा के बिच में बैठकर  अमृतपान कर लिया जिससे सूर्य के बाद अमृतपान होते ही चंद्रमा को जब अमृत ना मिला तो सभी देवताओ को शक हो गया की कोई दानव छल से अमृतपान किया है और सभा का पालन ना करने के कारण भगवान श्री हरी विष्णु ने उसका सर धार से अलग कर दिया चकी वह अमृतपान कर चुका था अत: सर अलग होने के बबाद भी अमर रहा| आज भी प्रकाश पुंज सूर्य एवं शीतल चंद्रमा को रहू ग्राश लेता है जिसे हम ग्रहण मानते है| इसे वज्ञानिक अपवाद मानते है और वह इसे ग्रहण के कच्छा में चलायमान होने कारण ग्रहों के एक दूसरे पर प्रतिविम्ब भर मानते है|
परम ब्रहम के दसावतार क्रम में प्रथम मत्स्य और द्रितीय कुरमा (कछुवा) जैसा की वर्णित है के बाद तीसरा शुकर (सूअर) के अवतार में भगवान हिराक्ष का वध कर प्रथ्वी का तारन किया है| चतुर्थ अवतार में मृसिंह (नरसिंह) अर्धमानव अर्ध हिंसात्मक पशु सिंह के रूप में भक्त प्रहलाद की रक्षा एवं हिरन कश्यप का वध है| पंचम अवतार में महान यश्व्शी धर्मात्मा राजा बलि को इन्द्राशन पाने की लालशा से विरत करते है तीन पग प्रथ्वी दान का संकल्प लेकर विराट रूप में अंतिम पग राजा बलि के पीठ पर रखकर अमरत्व प्रदान कर स्वं पहरेदारी का भार लेकर इन्द्र की रक्षा करते है| छाद्वे परुश्राम अवतार में ऋषि जम्न्दिग्नी और रेणुका माता के आश्रम में जन्म लेकर निति, धर्म की रक्षा, अनाचार, अत्याचार को मिटाने के लिए प्रथ्वी को क्षत्रिय  विहीन करने के उद्देश्य से जन्मना ब्राह्मण होकर कर्मणा क्षत्रिय कर्म करते है| सतयुग के उपरोक्त छ: अवतारों के बाद त्रेतायुग का पदार्पण माना जाता है| सतयुग में उत्तम ऋषि पुल्कस्य कुल में जन्मे महाबली रावण अनाचारी, आतातायी, अत्याचारी सर्व वैभवशाली लंकाधिपति बन चुका था, सप्तम अवतार रघुकिल में चक्रवर्ती राजा दशरथ के यंहा भगवान राम के रूप में आकार रामण का बढ़ कर आदर्श स्थापित होता है| त्रेता युग के समाप्ति के पूर्व से ही द्वापद का काल शुरू हो चुका था जिसमे अष्ठम अवतार में दुरा चारी कंस का वध करते हुए कौरव वंश के विनाश हेतु पांडव के सारथी बन महाभारत की रचना होती है जिसमे धर्म और ज्ञान के साथ न्याय की रक्षा का अध्याय बनता है| अबतक कलयुग का भी आगमन हो चुका होता है अशांति, अहिंसा विभिन्न आयामों के साथ उत्कर्ष के ओर था नंवे अवतार में भगवान बुध ने शांति और अहिंसा के नए आयाम के साथ मानव कल्याण हेतु विश्व को सन्देश दिया|
इन सभी अवतारों में हैहयवंश कथा का उद्भभव समुद्र मंथन एवं परम ब्रह्मा के दशा अवतार के निकट है क्षीर सागर में आनंद कांड भगवान विष्णु एक दिन लक्ष्मी जी के साथ रमण करते हुए त्रिलोक में माया की क्रिया का आनंद अनुभव कर रहे थे अचानक एक दिन लक्ष्मी जी आकाश मार्ग में सूर्य देव के रथ में जुटे अपने भ्राता उच्चश्रवा अश्व (हैहय) को चाबुक से पिटते दशा की व्यथा को देखकर अत्म्गालनी और द्रवित हो गयी और उनसे मिलाने की तीर्व इक्षा होने लगी , इस बीच भगवान विष्णु उनकी इस इक्श्क्षा को जान गए उन्होंने माता लक्ष्मे को आश्वा(हैहय) रूप देकर उनके भाई उच्चश्रवा से मिलाने के लिए सूर्यलोक  भेज दिया वंहा लक्ष्मी जी हैहय रूप धारण किये अपने भाई की वास्तविक दशा जानने के उद्देश्य से रुकी, इधर भगवान विष्णु लक्ष्मी की अनुपस्थिति से विरक्त से रहने लगे स्वं हैहय का रूप धारण कर लक्ष्मी जी से मिलाने सूर्यलोक पहुच गए वंहा उच्चश्रवा के अनुवय विनय से कुक्ष काल के लिए विश्राम किये इसे बीच श्री हरी विष्णु और लक्ष्मी द्वारा एक हे रूप हैहय में होने क कारण दोनों एक दूसरे के अश्वक्त हो गए जिससे उन्हें एक दिव्या मानव सूत का जन्म हुवा क्जिसका नाम एक वीर रखा गया| यही पुत्र एक-वीर्य हैहयवंश के आदि वंश पुरुष हुए|
तरुनाई पौरुष शाष्ठाव के उम्र में लक्ष्मी पुत्र एक-वीर्य का विवाह राजा इन्द्र की पुत्री जयंत की शौभाग्य्वती कान्क्ष्नी सहोदरा के साथ संपन्न हुवा| उनके पुण्य फल स्वरुप जो पुत्र रत्न प्राप्त हुवा उसका नाम कृत-वीर्य रखा गया, कृत-वीर्य का विवाह वरुण सुप्त्री हीरावाते के साथ हुवा जिनसे जो पुत्र रत्न प्राप्त हुवा उसका नाम कार्यवीर्य पड़ा| कार्यवीर्य का विवाह इन्द्र दमन नामक राजा की सुप्त्री से हुयी इन्हें पुत्र रत्न मिला अवश्य परन्तु किन्ही कारणों से उनके दोनों भुजाये नहीं थी इसलिए इनका नाम अर्जुन रखा गया यही हैहयवंश कुल के मात्रा उतराधिकारी थे| कार्यवीर्य के मृत्यु के पश्च्यात अर्जुन अपनी अपनगता वश राज्यभिषेक पाने में अशमर्थ थे और सिंहासन पर नहीं बैठना चाहते थे परन्तु ऋषियों, मुनियों एवं राज्य के मंत्रियो ने राज्य के उतराधिकार के लिए कुल के नियमानुसार उन्हें राज्य की शिन्हाशन के लिए विवश कर उन्हें अपना राजा बना दिया| इधर राज्याभिषेक के बाद अर्जुन को प्रजा की रक्षा की चिंता और राज्य की रक्षा के लिए विचलित होना पड रहा था तभी राज्य के कुलगुरु ऋषि मुनी ने उन्हें भगवान दतात्रेय को अपना गुरु बनाकर उनकी आराधना और आशीर्वाद पाने का सलाह दिया| भगवान्  दत्तात्रेयजी कौन है वह हम श्री भागवत पुराण से प्राप्त कर सकते है जिसके अनुसार सती  अनसुइया का प्रभाव देखकर पार्वती जी, लक्ष्मी जी और ससावती जी को बड़ी ईष्र्या हो रहे थी, उन्होंने पाने पाने पतियों को अनुसुइया के प्रभाव और पतिवर्ता के गुण को खंडित करने के लिए प्रेरित किया, परन्तु पत्नियों के आग्रह से तीनो देव अनसुइया के अध्र्य-पाध आदि से स्वागत सत्यकार करके बैठने तथा भोजन करने की प्रथाना की|  त्रिदेव ने कहा अनसुइया तुम निर्वस्त्र होकर भोजन परोसोगी तभी हम सभी भोजन ग्रहण करंगे| अनसुइया धर्म संकट में पद गयी कि पराये [पुरुषो के सामने नग्न होना कदापि उचित नहीं है और अथितियो का अनादर और उन्हें भूखा प्यासा लौटाना भी अनुचित है अनसुइया मन ही मन कुछ संकल्प करते हुए कमंडल में रखा हुआ पति देव का चरणामृत हाथ में लिया और अथितियो पर छिड़क दिया उस चरोणदक का स्पर्श होते ही तीनों देव नवजात शिशु में प्रकट हो गए, ये तीनों जोर जोर से रोने लगे अनसुइया ने उन्हें गोद में उठाकर अपने स्तन से पान कराया| यही तीनों बालक आगे चलकर स्वंम दत्त हो गए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये दत्त – दत्तात्रेय जी ही गुनाताम्क भगवान के रूप में जाने गए है|
यही भगवान जो तीनों देव को अपने अंदर समाहित करते हुए प्रकट हुए थे, इन्हें अपने ऋषियों, मुनियों के सलाह से अर्जुन ने अपना गुरु और पूज्यनीय बनाते हुए इनके आराध्य हो गए और इनके ही आशीर्वाद और भक्ति करने लगे जिससे खुश होकर भगवान दत्तात्रेय ने सह्स्त्राबहू होने का वरदान दिया था और अनेक मंत्र, तंत्र और उपदेश देकर आदि भौतिक शक्तियों सिधियों  और साम्रज्य शुख वैभव से सपन्न किया था| अपने सौर्य वीर साहस और एक अछे प्रजा पालक के नाते इनका नाम कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से भी विश्व विख्यात हुए|  इन्होने अपना साम्राज्य  खूब बढ़ाया और महाश्मती नगरी नर्मदा के किनारे अपना राजधानी बनाया जो वर्तमान में खंडवा नाकक स्थान के पास है| कुछ नैसर्गिक दृश्य और कथाये इस बात की पुष्ठी करती है कि इन्होने अपनी सहस्त्रो बाहों की भुजावो द्वारा नदी को रोकर अपनी रानियों को नदी में जल-क्रीडा कराया करते थे| सह्स्त्राबाहू के यज्य वैभव को देखकर ऋषियों, मुनियों ने विश्वामित्र की परम सुन्दर सुलाक्षनी चार कन्याए जो ऋषि जन्मद्ग्नी के आश्रम में विद्या अध्यन कर रही थी का विवाह उनके साथ कराकर उन्हें महारानियो के पद पर शोभामान करा दी, अब ये चारो जीवन सगिनी सह्स्त्राबहू की महारानी बन राज महल को शोभा मान करते हुए चार चंद लगा रही थी| काफी समय बीत जाने के बाद महाराज सह्स्त्राबहू कुछ सैनिको के साथ जम्नाद्ग्नी ऋषि के आश्रम में अथिति के रूप में पधारे वंहा उन्होंने एक अलौकिक राज सम्मान के साथ अथिति स्वागत की व्यवस्था देखकर आश्चर्य चकित हो गए, वह आश्रम की इतने चाक दरुस्त और सुन्दर व्यस्था देखकर बड़े ही प्रभावित हुए, और उन्होनी ऋषि राज से इसके बारे में जानने की उत्सुकता बतायी की वो ये सारा इंतजाम कैसे कर पाते है, ऋषि राज अत्यंत ही दींन भाव से सब विस्तार से बताते हुए उन्हें कामधेनु के बारे में जब बताया  तो उन्होंने ऋषि से कामधेनु की मांग रख दी ऋषि के मना करने पर उन्हें गुस्सा आ गया वह बोले की इसकी ऋषियो के पास क्या आवश्यकता यह तो राजा के पास होनी चाहिए ताकि वह इससे प्रजा की सेवा और अच्छी तरह से कर सके| जब ऋषि काफी मान मनुवल और निवेदन से ना देने के कारण महाराज सह्स्त्राबहू को अत्यधिक गुस्सा आ गया और वह फिर बल पूर्वक उन्हें आशाराम में बंदी बनाते हुए कामधेनु को उठा लगाये|
इस बीच जब सारा वृत्तांत ऋषि पुत्र परुशुराम को ज्ञात होता है जो शिक्षा कर आश्रम से लौटे थे तो उन्हें बहुत ही क्रोध होता है, और वह राजा और उसके वंश में ज्ञात होने पर उस हैहयवंश को मूल ही नष्ट करने का प्राण लेकर महाराज सह्स्त्राभु से अपने पिता का  बदला लेने के लिए निकल पड़े, और फिर परुशुराम और सह्स्त्राबहू के बीच भीषण युद्ध जो कई वर्षों तक चला| उस युद्ध में महाराज सहस्त्रबाहु को परास्त होना पड़ा और वीरगति पाए, तद्पश्यात भी पुरुश्राम का क्रोध शांत ना हुआ और वह शिव से वरदान में प्राप्त धनुष द्वारा राजा सह्स्त्राबहू की रानियों के गर्भ में पल रहे बच्चो को भी मार कर वंश का नाश करना पर उतारू हो गए| ताकि हैहयवंश का सर्वकुल का नाश हो जाय| परुशुराम के इस क्रोधित रूप देकर रानिया  उनके पास आकार रोती, बिलखती भयभीत चारो रानिया शरणागत हो जाते है शरणागत रानियों के हीन –दींन  व्यथा देख उनका गुस्सा कुछ शांत होता है और वो चारो रानियों से वचन लेते है की यदि तुम्हरी संताने क्षत्रिय वृति का त्याग कर अपना जीवन व्यतीत करे तो तुम्हारे पुत्र और वंश को मै जीवन दान दे सकता हू| इस तरह वचन बध्दता से उन्हें जीवन दान मिला और हैहयवंश का सर्वनाश होने से बच गया|
समय बीतने पर चारो रानियों को चार पुत्र रत्नों का जन्म दिया, बड़े होकर पुत्रो ने अपने पिता  के बारे में अपनी माताओ से पूछा तो माताओं ने पूरी वृतांत के साथ भगवान परुशुराम के वचनों से उनको अवगत कराया| उतेजित पुत्रो ने पिता के वध का बदला लेने के उद्देश्य से श्री शिव की उपासना कर प्रसन्न करते हुए अपने पिता का बदला हेतु वरदान के लिए बहुत दिनों तक तपस्या और साधना करने लगे जब साधना का पता पुरुश्राम जी को लगा तो वो अपनी रक्षा के लिए माँ देवी सरस्वती से प्रार्थना कर वरदान मांगे तो समय आने पर उन्हें रक्षा का आश्वाशन दे दिया, भगवान शिव चारो भाइयो की कठोर तपस्या और साधना से प्रसन्न होकर उन्हें मनचाहा वरदान देने के लिए कहते है और बोले की क्या चाहते हो मांगो इसी बीच सरस्वती जी अपने रक्षा के वरदान का आश्वाशन के अनुसार इन चारो भाइयो के कंठ पर विराजमान हो जाती है और इनसे वरदान मांगने के लिए कहने पर बानेज्य के स्थान पर वाणिज्य शब्द के उचारण करा देती है और वह सभी भाई इस वरदान को पाकर अपने कार्य को पूरा नहीं कर पाते| तब उन्होंने माँ पार्वती से यह बात बता कर उनकी अराधाना और साधना करने लगते है तो माँ उनसे प्रसन्न होकर उनके रक्षा का वरदान देकर उन्हें भगवान विश्कर्मा से ज्ञान प्राप्त कर संसार सेवा के लिए कहती है| चारो भाई भगवान विश्वकर्मा की भक्ति सेवा में जुट जाते है| भगवान विश्वकर्मा उन भाईयो को अलग अलग धातु- विद्या, स्वर्ण, रजत, निर्माण आभूषण कला रस-रसायनिक आदि सिद्दी का आचर्य और श्रेठ बनाने का आशीर्वाद देते है| इन सभी कार्य में आग-भठठी  का प्रयोग होता है और बिनी काली के इसे पूरा नहीं किया जाता है अत: महाकाले और त्रिसूल की पूजा किये यह कार्य पूरा नहीं हो सकता था इसीलिये आज भी यह कार्य करने वाले लोग त्रिशूल का निशाँन और माँ काली की पूजा अपना कार्य प्रारंभ करने के पूर्व अवश्य करते है| कुछ जगहों पर निवास करने वाले ऐसे लोग वर्ग और समुदाय माँ काली को ही अपना देव-देवी मानकर उनकी पूजा करते है और उन्ही को अपनी रक्षक भी| धातु विद्या में तांबा, कान्सा और अन्य धातु के अलग अलग जगहों पर समुदाय और वर्गों द्वारा जीविका के लिए किये जा रहे कार्यों के कारण ही तमेरा, कसेरा और अन्य नामो से उन्हें जाना जाता है इसे सर्व साधारण लोग आम बोल चाल की भाषा में ठक-ठक कर बनाने की आवाज होने के कारण ठठेरा कहने लगे जो बाद में स्कूलों और किताबो में ठठेरा शब्द का प्रयोग ठ शब्द के उच्चारण और अर्थ को समझाने के लिए किया जाने लगा|
कलिका पुराण में यह वर्णित है कि-

सोमवंशी महाराजा: कार्तवीर्यात्म्जोजुर्ण:
तस्यान्त्र्य स्मुत्य्य्पना: वीर्सेना द्यीनाया|
तेशा मध्य्न्य्वे शुरा: कान्स्ययुप्जिविन:
कंसारा इति  विख्यात: कलिका यज्नेर्ता||

वर्तमान में संभवत: उक्त चारों भाईयो में से मूल धातु तांबा के कार्यों को करने वाले समुदाय/वर्ग को तमेर, तमेरा आदि, धातु  कान्सा  के कार्यों को करने वाले समुदाय/वर्ग को कसेरा, कंसारा, धातु सोने-चांदी  के कार्य करने वाले समुदाय/वर्ग को सोनार, स्वर्णकार, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार तथा फल, कृषि अनाज के द्रव से औसौधि रस के कार्य (कला + रस) के कारण उन्हें कलवार कहा जाता है और शायद ये सभी एक ही जाति हैहयवंश से सम्बंधित है क्योकि इन सभी में कही ना कही भगवान महाराज सह्स्त्राबाहु की पूजा अर्चना सदियों से इनके वर्ग/समुदाय में की जाती रही है पर शिक्षा और ज्ञान के अभाव में यह सभी समुदाय अलग अलग रूप और कार्य करने के कारण इससे अनिभिज्ञ है| जो  कुछ लोग पढ़ लिख कर शिक्षित है वो अपने वर्ग/समुदाय को हैहयवंशीय क्षत्रिय कसेरा, तमेरा स्वर्णकार-क्षत्रिय और क्षत्रिय कलवार कहने लगे है और सभी महाराज सह्स्त्राबाहू की पूजा अर्चना भी अलग अलग करते है|

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