हैहयवंश और संस्कार

हैहयवंश और संस्कार
किसी भी समाज की सामाजिक महत्व और स्थिति उसके संस्कारों, रिति रिवाजो और परिवेश से जाना जाता है| हम भिन्न भिन्न विचारों और जगहों पर रहते हुए भी बुनयादी सम्सरता और अपनत्व ही है कि हम एक दूसरे के माध्यम से एक सामाजिक परिवेस की स्थापना कर रहे है, इसमे कही ना कही हमारा सामाजिक संस्कार ही है जो हमें हैहयवंश से जोडता है, जो पीढियों  से चली आ रही है| हम एक प्रतिनिधित्व  के रूप मे श्री सहस्त्रबाहु महाराज को अपना कुल गुरु मानते है तो फिर उनके गुणों और ज्ञान को क्यों नहीं अपने जीवन मे ढालने की कोशिश करते है| हमारा वंश क्षत्रियता का धोतक है हम सर्व श्रेष्ट क्षत्रिय होते हुए भी हम अपने को क्षत्रिय होने से परहेज कर रहे है, और कहने तथा लिखने मे संकोच कर रहे है, इसके पीछे कही नहीं कही हमारी अज्ञानता और अशिक्षा ही सबसे बड़ा कारण है| कहने को तो हम हैहय और श्री सहस्त्रबाहु को अपने से जोडते है पर रूढवादी परम्परा और पीढ़ी द्वारा चली आ रही परमपरा को छोड़  नहीं पा रहे है| हम जब हैहयवंश और सहस्त्रबाहु से अपने को जोड़ सकते है, तो फिर उनके गुणों और संस्कारों को क्यों नहीं अपने जीवन मे अपनाते है| हम सभी स्वजाती को चाहिये की हम हैहयवंश के वंशज है यह हम नहीं इतिहास और पुराण कह रहे है अत: सबसे पहले हम स्वंय को क्षत्रिय कुल मे जन्म पाने का स्वाभीमान होना चाहिए और क्षत्रिय्ता को अपने जीवन मे परिलिक्षित करना चाहिए, समाजिक परिवेश मे इसका परिणाम् भी समाज को दिखाई देना चाहिए| इतिहास के पन्नों मे उलब्ध होना केवल यह काफी नहीं है हमें अपने इतिहास को जानना और पढना होगा तभी यह बदलाव संभव होगा| यह कहावत है कि समय बड़ा ही बलवान होता है, और दुनिया मे कोई भी चीज स्थाई नहीं होती है और समय सदैव सबके लिए एक सामान नहीं होता है, पर प्रगति के लिए और जीविका के लिए मनुष्य को कर्म तो करना ही पडेगा| अब उस कर्म को रूप चुनाव मनुष्य को खुद करना पडता है, जिससे उसका और उससे जुड़े समाज का भविष्य मे लाभ-हानि प्राप्ति होता है| उसी रूप मे हमारा स्वरुप और पहचान समाज मे बंटी है| अत: जैसा कर्म करेंगे हमें वैसा ही फल मिलता है, इसी कारण यह कहा जाता है की आप कितने भी मजबूरी मे क्यों ना हो पर सत्य, अहिंसा निष्ठा के साथ किया गया कार्य अवश्य ही अच्छा फल देती है| यह समय की ही दें है की हमारा वंश के पुर्वजू ने पुरे आधी धरती पर राज्य किया करते थे और समारा स्मार्ज्य स्थापित था बड़े बड़े सुरवीर राजाओं को पराजीत कर उन्हें अपना दास बनया था तथा उनके राज्य की प्रजा अत्यंत ही धनवान, परिश्रमी और विद्यमान थे| परन्तु जैसा कि विदित है समय सभी के लिए सामान नहेई रहता है समय और काल ने हमें आज इस स्थिति मे पहुचा दिया है कि हम अपनी क्षत्रियता की पहचान को पुन: से स्थापित करना पद रहा है| हमारे पूर्वजो द्वारा स्वाभिमान को अभिमान और मोह ने ऐसा कार्य कराया की एक ब्राहमण ऋषि द्वारा दिया गया श्राप ने पुरे वंश का विनाश कर दिया|  इसमे कही ना कही हमारा अंहकार, अधर्म और अभाग्या ही रहा होगा जिसके कारण हमारा समाज विलुप्त होता गया और पुरे वंश को अपनी पहचान तक छिपानी पड़े| इतिहास इसका गहाव है  हमें पुराणों, ग्रंथो और गीता का अध्यन करना चाहिए, अपने सामाजिक विकास मे शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए| अत: हमें अपनी पुन: खोई हुई पहचान और संस्कार को स्थापित करने के लिए शिक्षित, संगठित और शशक्त होना पडेगा, हमें उस श्राप से भी बाहर आना होगा जिसे महर्षी जम्न्दिग्नी ने सहस्त्राबहु को हैहयवंश को नाश होने का दिया था साथ ही उनके पुत्र परुस्राम के भय जो उन्होंने पुरे पृथ्वी को सात बार हैहयवंशियो क्षत्रियों को नाश कर किया था, जिसके कारण हमें अपना स्वरुप तक बदलना पड़ा था| यहाँ तक की हमे वंश के लोग अपना स्वरुप और संस्कार भूल गए है| यह घटना बीते काल की थी, आज कलयुग मे हम रह रहे है जन्हा उस श्राप और भय का कोई स्थान नहीं है, समय के परिवर्तन ने बड़े से बड़े घटनो को पीछे छों दिया और नयी इतिहास बन गए है| यह घटना कोई हमारे ही वंश और समाज मे नहीं हुयी है बहुत से वंश और जातियों मे बड़े से बड़े घतान्ये हुयी पर वो समय के साथ बदलने की कोशिश किये और आज हमसे निम्न श्रेणी मे होते हुए भी हमसे आगे और ससक्त है| समय और काल के बदलने से प्रकिरती के नियम अनुसार कुछ ना कुछ बदलाव सभी मे होता है पर जो पुर्वजू और वंश का मूल तथा पहचान नहीं मिटाई जा सकती है अन्यथा हम अपने आप को हैहयवंश और सश्त्रबहू से क्यों जोडते है, किसी ने भी इतिहास के घटनाओं को नहीं देखा है ना ही स्वतः धारण किया है, इस परमपरा के पीछे हमारे पुर्वजू का ही आशीर्वाद और मंत्र आने वाली पीढियों को मिलाने के कारण ही हम उसे धारण करते है, हा यह वह्स्य है की अच्छाईया  और बुराईयां समय के साथ अपना फल देते रहते है| समय के अनुसार सभी समाज धर्म और जातिया अपने को बदलने और अपनी खोई पप्रतिथा को बनाने और बढाने मे लगे और हम आज भी अपने को बदलने को तैयार नहीं है|
इस महान देश में बहुत सारे महान पुरुष और बहुत सारी जातीय है, जिनकी कहानिया सदियों से मानव निर्मित वर्ण और जातिया का रूप दे दिया है जिसका आकलन करना बहुत ही मुश्किल है, आज तकदेश में कितनी जातिया बनी है का कोई सरकारी अंकरा ना तो बना है ना इसकी गिनती की जा सकती है| जिस वर्ण वयस्था और जाती वयस्था ने हमारे समाज को कमजोर  बनाया है उसकी कड़ी अब समय के परिवर्तन के साठग टूटने लगी है| अब यह व्य्धाता न तो समाज द्वारा न ही किसी और कारण से खत्म हों चुकी है की आदमी जिस जाती या वर्ण में पैदा हवा है उसी का ही वह कार्य कर सकता है| आज हमारे भी देश में प्रतिस्पर्धा आधारित प्रगति का युग शुरू हों चुका है| पहले जो जातीय बहुत ही छोटी और पिछाणी जानी जाती थी वह अपने परिश्रम और योग्यता के साथ समय को पहचान कर आगे बढ़ रहें है यंहा तक अब वो जातिया बहुत ही नीचे दर्जे के काम करते थे आजा ऊँच जाती के काम जैसे पूजा पाठ और शादी व्याह के कार्य क्रम करा रहें है, देश के बड़े बड़े पदों पर रक्षा अदि के कार्य कर रहें है| अब वह समय बदल गया की ब्राहमण कुल का व्यक्ति पूजा और शिक्षा का ही कार्य करे, क्षत्रिय धर्म रक्षा और बड़े कार्य करे तथा वैश्य धन और व्यसाय का कार्य करे| आज वर्ण और पुरातन जाती वयस्था का समाज में कोई स्थान नहीं है, जो व्यक्ति समय के अनुसार योग्य, शिक्षित और परिश्रमी है वह कोई भी कार्य और पद पा सकता है| पूर्व में हैहयवंशियो के विनाश के लिए हुयी घटनाएं जो पुराणों और शाश्त्रो में कही और लिखी गई है जो की ब्रहामण और क्षत्रियों के बीच ऊँच नीच के एय्से ही संघर्ष का परिणाम था जो रुध वादी परम्पराओ को अब समाज को मुक्त करना ही होगा| अत: हम सभी हैहय वंशीय क्षत्रियों को चाहिए के रुध वादी परम्परो से ऊपर उठ क्र देश समाज के लिए एकजुट होकर शिक्षित, खुले विचारों और समय के साथ चलना होगा तभी इस समाज का उद्धार हों सकता है|
संकलन:

डा० वी० एस० चंद्रवंशी, गोरखपुर 

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