संपादकीय यह पुस्तक लिखने के पीछे लेखक कि मंशा समस्त हैहयवंश समाज को अपने इतिहास मात्र से परिचित कराना है| पुस्तक मे लिखी गयी जानकारिया केवल अब तक समाज द्वारा लिखी और एकत्र की गयी सम्बन्धीत किताबो, ग्रंथो, पुराणों और भूतकाल मे उपलब्ध कुछ इतिहासकारों द्वारा ली गयी है इस पुस्तक मे लिखी किसी भी जन्करिई का कोई लिखित साक्ष्य नहीं है अत: इसे मात्र इतिहास मान कर पढ़ा और समझा जय| यहा यह बताना अतिआवश्यक है की यदि किसी के पास कोई भी सरकारी आधार पर सबूत और अन्य साक्ष्य हों तो कृपया हमें उपलब्ध कराने किई कृपा करे| ताकि उसे आधार मानकर अपने समाज के इतिहास का असली रूप प्रस्तुत किया जा सके| लिखे इतहास को ताड़ी आधार बनाकर माना जय तो यह सही है कि हम यदि अपने को हैहयवंश या सहस्त्रबाहु से जोडते है तो फिर कही न कही हमारा सम्बन्ध क्षत्रियावंश से जरूर रहा होगा| क्योकि यह शब्द अपने समाज मे आज से नहीं परन्तु कई शताब्दियों से लिखा और सूना जा रहा है| यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने क्षत्रियता को कभी भी स्वीकार नहीं सके इसका जो भी कारण रहा हों| यह बहस का विषय नहीं है| मनुष्य परिस्थतियो का गुलाम होता है| औ